Tuesday 8 January 2013

आम आदमी की लोकतंत्र से बढ़ती निराशा?
          डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
किसी भी राष्ट्र का लोकतंत्र उसकी गरिमा को न सिर्फ अभिव्यक्त करता है बल्कि उसकी संप्रभुता को सुदृढ़ भी बनाता है. भारत में इस बात की काफी नजीर दी जाती रही है कि हमारे देश का लोकतंत्र अन्य पड़ोसी देशों की अपेक्षा टिकाऊ है. यह बात शत-प्रतिशत सच हो भले लेकिन जिस प्रकार हमारे भ्रम टूटते जा रहे हैं पिछले कुछेक वर्षों में, इससे इस बात का एहसास होता है कि हमारी भी स्थिति अब ठीक नहीं है. एशिया के बहुत से ऐसे देश हैं जो इस त्रासदी से गुजर रहे हैं. अभी पिछले दिनों मानवाधिकार दिवस पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि मोटे तौर पर विश्व के अनेक हिस्सों में हमने लोकतांत्रिक प्रशासन में हासिल सफलताओं के लिए चिंताजनक खतरे देखे. कुछ देशों में सामाजिक समूह बढ़ते दबाव और पाबंदियों का सामना करते हैं. सामाजिक संगठनों को विशेष रूप से निशाना बनाकर क़ानून बनाए गए हैं. जिससे उनके लिए काम कर पाना असंभव हो गया है. लोकतंत्र का सामना नए टकराववादी उपायों से हो रहा है. हम सबको बिपथगामी प्रवृत्ति पर चिंतित होना चाहिए. बान की मून की यह एक तरह से आम आदमी की चिंता है. भारत में उभरता नक्सल और अन्य सरकार की नज़र में उसके मुताबिक़ काम न करने वाले लोगों के खिलाफ ऐसे क़ानून आहिस्ता-आहिस्ता चलन में आ जायेंगे. बान की मून की तरफ से की जा रही चिंता का आखिर कोई न कोई कारण है.
यहाँ मैं तीन दलीलों को एक-एक करके देख रहा हूँ. पहला, पिछले कई महीने अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल के आन्दोलन चले. इसमें आम आदमी सरीक हुआ. उसके मन मस्तिष्क में केवल एक भावना थी कि हमें भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला दो. लेकिन उसके मांग के जो तरीके थे वह सरकार के भ्रष्टाचार मुक्ति के तरीकों से मेल नहीं खाते. सरकार अपने ढंग का भ्रष्टाचार मुक्ति क़ानून लाने के लिए प्रतिबद्ध है. आम आदमी का लोकतंत्र कुछ और है और सरकार के लोकतंत्र की परिभाषा उसकी स्थायित्व से जुड़ी है. यह जो एक-दूसरे के बीच खाइयां हैं उसे न ही सरकार पाट पा रही है न आम आदमी अब यह समझ पा रहा है कि उसकी सीमाएं कहाँ पर ख़त्म हो जाती हैं.
दूसरा, एफ.डी.आई को लेकर कुछ रोष हुआ. आम लोगों को इसमें मुक्ति के लिए शामिल किया गया और आवाज़ उठाने की बात हुई. उसके भी सामने अलग-अलग पार्टियों के लोगों ने अपने हथियार डाल दिए. आम आदमी जहाँ का तहां केवल तमाशबीन बनकर देखता रह गया. उसे न ही माया का साथ मिला न ही मुलायम सिंह यादव का कोई न्याय. अपने-अपने लोकतंत्र गढ़ने की यह कोशिश थी और किस तरह आम लोगों के खुशियों से दो-चार हो कर उनसे दूर निकल गयी इसका लोगों को भान भी न हो सका.
तीसरा, जो आजकल दिल्ली समेत भारत भर में हो रहा है. बलात्कार के सम्बन्ध में आन्दोलन हो रहा है. उसे सुनकर तो यही समझ में आता है कि भारत की जनता खासकर बेटियाँ कितनी असुरक्षित हैं. इस बलात्कार पर भी आन्दोलन हो रहा है यह ठीक है. यह रूह से निकल कर लोगों की निकली आवाज़ है. लेकिन आन्दोलन को सही न्याय देने की जगह जो बहस फांसी पर अटक रही है वह न ही बलात्कारियों को कोई सजा दिला सकेगी और न ही कोई पीड़ित को न्याय.
इस देश में बहस बहुत ज्यादा होती है. बहस से आप क्या जताना चाहते हैं? यही कि आप कितने तरह से विचार कर सकते हैं? कितने तरह से बचाव कर सकते हैं? कितने तरह से अपने गुबार को जनता के सामने लाने में आप प्रवीण हैं? शायद यह आपकी बहस किसी पीड़ित के घाव को कभी भर नहीं सकेगी, इसका आपको एहसास नहीं है. शायद इन बहसबीनों को यह पता नहीं है कि आप आम आदमी के निराशा को बढ़ाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं? यह आम आदमी आज के लोकतंत्र से निराश है तो इसके लिए यह आपकी बहस कहीं न कहीं जिम्मेदार है.
असली इसकी लड़ाई यही है कि क़ानून इतने शख्त हों कि कोई ऐसी घृणित कोशिश करने के लिए दस बार सोचे. बजाय इस बात की चिंता करने की कि उसे फांसी दी जानी चाहिए या नहीं इस बात की चिंता ज्यादा होनी चाहिए की इस समस्या से मुक्ति के उपाय क्या हैं? लोकतंत्र में और लोकतांत्रिक देश भारत में रह रहा आदमी इस बात से हमेशा बेफिक्र होना चाहिए कि उसकी सुरक्षा कभी खतरे में है. उसकी सुरक्षा का जिम्मा तो राज्य की जिम्मेदारी है. लेकिन विडम्बना यही है कि वह अपनी औपचारिकताएं पूरी करता है. भारत के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) श्री जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गृह मंत्रालय ने बनायी है. इस वर्मा समिति की अपेक्षा है कि आम आदमी अपना सुझाव दे और देश को एक क़ानून उस सुझाव के मुताबिक़ हम देंगे लेकिन क्या यह पर्याप्त है? अब यह सुझाव पांच जनवरी तक आयेंगे फिर बहस होगी और संस्तुति की जायेगी. इसके परिणाम क्या होंगे इसका मालिक खुदा है. फिलहाल संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और देश के गृह मंत्रालय ने अपनी अपनी पूरी चिंता आम आदमी के सामने रख दी है अब न्याय मिले तो सरकार की और अपराध हुए तो भी वे जागरूक हैं.
फिलहाल, सरकार जो कर रही है उसे तो करने देना चाहिए लेकिन अपने ही समाज के अनैतिक साहस क्या इन साड़ी समस्याओं की जड़ नहीं लगते. शायद सामूहिक नैतिक भावना और मूल्यों के साथ संयम इन मुशीबतों से मुक्ति दिला सकते हैं लेकिन यदि समाज खुद जागरूक हो तभी यह संभव है.
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पता: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, (पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील के सम्पादक), सहायक प्रोफ़ेसर, अकादमिक स्टाफ कालेज, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 (मध्य प्रदेश), Mo: 08989154081, email: kanhaiyatripathi@yahoo.co.in, hundswaraj2009@gmail.com

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