Thursday 31 July 2014


 चरखा जो कभी अस्मिता का प्रतीक था!
कन्हैया त्रिपाठी
मनुष्य बिरादरी का अन्तिम लक्ष्य क्या है, इसकी अगर पड़ताल की जाए तो यह पता चलता है कि मनुष्य अन्तत: आनन्द की प्राप्ति चाहता है। सुख उसका प्रथम लक्ष्य है। आजादी से पूर्व और अब भूमण्डलीकरण के युग में भी अगर विभिन्न परिस्थितियों से मनुष्य संघर्ष कर रहा है तो उसके संघर्ष का अंतिम उपक्रम उसके सुख पर जाकर सिमट जाता है। यह बात अलग है कि इसमें से कुछ सार्थक जीवन जीते हुए अपने समाज और दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं। जो दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं उनकी दूरदर्शिता उन्हें इस काबिल बनाती है। वस्तुत: वह अपने साधन और साध्य में फर्क करके अपनी योजनाओं को मूर्तरूप देते हैं, इसलिए समाज हित में कुछ रचनात्मक कर गुजरते हैं।
गांधीजी ने सन् 1909 में एक छोटी सी किताब लिखी थी-हिन्द स्वराज। उसमें साधन और साध्य का मूलमंत्र उन्होंने दिया था। उस पुस्तक में गांधीजी ने ऐसी सभ्यता का विरोध किया था जो मनुष्य के 'स्व' का सर्वनाश करती हो। इसके बदले वह एक 'अहिंसक सभ्यता' ईज़ाद करते हैं जिसके माध्यम से मनुष्य छोटे व लघु उद्योग-धन्धों को अपनाकर स्वावलम्बी बन सके।
हम देखेंगे कि उन दिनों सशक्त विकल्प के रूप में 'चरखा' और 'खादी' अपनाने पर गांधीजी ने बल दिया। उनकी खादी के जरिए स्वदेशी सभ्यता की अनुगूंज थी, और उनका मानना था कि यह गरीबों का सहारा है, दुखियों का बन्धु है और अन्धे की लाठी है।
चूँकि गांधीजी यह जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है इसलिए भी वह चरखें के सहारे गांव को खुशहाल बनाने का स्वप्न देखते थे। उनका मानना था कि बड़े उद्योग किसी भी तरह भारतीय ग्रामीण सभ्यता के लिए लाभप्रद नहीं हैं और इससे ग्रामीणों का पलायन भी सम्भव है। इससे निजात के लिए उन्होंने चरखे की ओर भारतीय मानस का ध्यान खींचा। वास्तव में, जिस भारत के करोड़ों लोगों के दो जून के भोजन की जरूरत हो उसकी भरपायी भले बड़ी मशीने कर दें लेकिन वह कभी उन्हें सम्मान भी उसी एवज में दे पाएंगी, यह असम्भव था।
चालीस और पचास के दशक में चरखा लोगों के जीवन के उत्कर्ष के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। चरखे से लोग आत्मानुशासन, धैर्य और स्वावलम्बन तो प्राप्त किए साथ ही भारत के लोग गुलामी से मुक्त हुए।
चरखे के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि यह आध्यात्म से जोड़ता है। इससे मनुष्य एकग्र होता है लेकिन इसके साथ यह चीजें भी गहरे चिंतन के बाद समझ में आती हैं कि यह थाली की रोटी को सृजित करता है। थाली की रोटी का मतलब, मनुष्य के छुधा का भंजक भी यह है। मनुष्य के आत्मिक संतुष्टि का विकल्प चरखा इन अर्थों में ईश्वर का साक्षात दर्शन बनकर हमारे सामने प्रकट होता है। इस प्रकार चरखा आध्यात्म है तो जीवनचर्या का संबल भी।
आज नई तकनीकें, प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान ने मनुष्य को इस योग्य बना दिया है कि उसकी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। लेकिन यह सम्पूर्ण आबादी का चित्र नहीं है। अभी भी हमारे देश की बहुतायत जनसंख्या गांवों में रहती है, उसके दो जून का निवाला अभी भी चरखा जैसे औजार दे सकते हैं जो कम लागत और कम परिश्रम से सुलभ हों। हमें विस्थापित न करें और हमें अपनों से दूर न करें। इसका विकल्प अब भी चरखा हो सकता है।
यह अच्छी बात है कि चरखा अब नए परिस्कृत रूप में हमारे सामने है। उसके नए संस्करण ने जमाने के हिसाब से सुगम तरीके से कताई की क्षमता प्राप्त कर ली है। इसलिए यह चरखा अब तो और हमारी गरीबी काट रही जनता का हमदर्द साबित हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसको कितनी तत्परता के साथ अपनाते हैं। गांधी ने अपनी पुस्तक में ऐसे ही उपक्रम को धारण करने की सीख दी है जिससे हमारी अपनी आत्म की छति न हो। अपने स्व को हम न खत्म कर दें। इसीलिए वह सच्चे साधन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता की बलिहारी, की वह अपने से विरक्त होने नहीं देती। वह अपने उन संजाल में फंसा रही है हम मनुष्यों को, जिनसे अगर हम उबर न सके तो हमारी अपनी आजादी छिन जाएगी। सन् 2007 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग के स्वर्ण जयन्ती समारोह में भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने कहा था खादी हमारे अन्त:करण की भावनाओं का हिस्सा, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी और ग्रामोद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का माध्यम है और इसमें रोजगार की विपुल सम्भावनाएं हैं। इन सम्भावनाओं को कौन तलाश रहा है? हमारे देश के लोग अपनी सम्भावनाएं ग्लैमर में ढूढ रहे हैं। विदेशों में तो लोग खादी पहनते हैं और चरखे की ओर भी उनका सकारात्मक रुझान है लेकिन भारत अपनी मूल चेतना से भटक रहा है, यह चिंतनीय है।
हम चरखे से अलग नहीं हो रहे हैं। बल्कि इसपर से यह समझ में आता है कि हमारी संकीर्णताओं और जरूरतों ने हमारे अपने से अलग कर रखा हैं। सम्बन्धों के साथ आज रोना है और अपने कुटीर उद्योगों के साथ यही रोना है कि ये हमारे विकास में सहयोगी नहीं हैं। यद्यपि यह एक मिथ है। इस मिथ से जब तक हम मुक्त नहीं होते तब तक हम चाहकर भी जुड़ नहीं सकते। यह हमारी कमजोरी है। अपनी आजादी के मुख्य अस्त्र आज विल्कुल हमारे लिए किसी काम के न रहे यह कहना हमारी भूल है। हमारे देश में आठ हजार दूकानों से खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग अपने माल तैयार कर रहा है और विपणन भी कर रहा है लेकिन यह हमारे लिए विल्कुल हास्यास्पद है कि भारत की 90 प्रतिशत जनता इससे विरत होना चाहती है। कमीशन के साथ जुड़े लोगों के बारे में भी ऐसी राय है कि यह वे लोग हैं जिनकी इस बहाने कोई अन्य दूकाने चलती हैं। इस प्रकार खादी और चरखे के साथ यह दशा होगी, किसी ने सोचा नहीं था। आज जब हम नए विश्व बाजार का सामना कर रहे हैं तो क्या अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर अपने चरखे से रूबरू हों, यह यक्ष प्रश्न है।

 पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
Residential Address: Maheshpur, Azamgarh-276137(UP). Mo. 09765083470