Tuesday 7 June 2011

Istrivad ko peechhe chhodatin Mother Teresa

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मनुष्य का दायरा तब बढाता है जब हमारे बीच ऐसी सख्शियत मौजूद हो जाती हैं जो किसी भी तरह हमारे लिए प्रेरणास्रोत हों. मदर टेरेसा उनमें से एक थीं. वह किसी समाज से यह नहीं कहतीं कि स्त्रियों को अधिकार दो. वह स्वयं एक ऐसी मिसाल की तरह पेश होती हैं जिससे लोग उनके प्रेरणा पर अपनी राह बनाएँ. आज का स्त्रीवादी प्रश्न जो हर गली-चौराहे पर मुखरित हुआ है उसके लिए भी मदर एक ऐसी मिसाल हैं जो किसी पितृसत्तामक समाज से यह शिकवा नहीं करतीं कि वे हमें आगे बढ़ने से रोक रहे हैं.
सेवा भावना
मदर टेरेसा जी का 27 अगस्त 1910 को मैकेडोनिया गणराज्य की राजधानी स्कोप्ज में एक कृषक दंपत्ति के  घर जन्म हुआ था। क्या आप जानते हैं कि मदर टेरेसा का असली नाम 'अगनेस गोंजे बोयाजिजू' था? बचपन में ही अगनेस ने अपने पिता को खो दिया। बाद में उनका लालन-पालन उनकी माता ने किया।  महज एक जीवन नहीं मिशन मदर टेरेसा 18 वर्ष की छोटी उम्र में ही समाज सेवा में जुटीं इसको अपना ध्येय बनाते हुए मिस्टरस ऑफ लॉरेंटो मिशन से स्वयं को जोड़ीं । वह सन् 1928 में रोमन कैथोलिक नन के रूप में कार्य शुरू कीं। भारत में वह बहुत दूर से आई थीं, मैसिडोनिया के स्कोप्जे शहर से अलबेनियाई मूल की अट्ठारह साल की एक नन एगनस, यूं तो लॉरेटो कॉन्वेंट में पढ़ाने के लिए भारत पहुंची थीं लेकिन बीस साल बाद उसे समझ में आया कि उसकी दुनिया तो कहीं और बसती है. सड़कों पर, झुग्गियों में, गरीबों में, और लाचारों में
 ईसाइयों के सबसे बड़े चर्च वैटिकन ने उसे उसकी दुनिया दे दी. यह पहली और इकलौती मिसाल हैं, जब वैटिकन ने किसी नन को बंद कमरों से आज़ादी और बाहर रहने की इजाजत दी, उसे अपना अलग ऑर्डर शुरू करने की अनुमति दी । कहते हैं जहां चाह है वहीँ राह है, यह कहावत इस महिला ने चरितार्थ कियादार्जिलिंग से प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद मदर टेरेसा ने कलकत्ता का रुख किया।
24 मई, 1931 को कलकत्ता में मदर टेरेसा ने  'टेरेसा' के रूप में अपनी एक पहचान बनाईं। इसी के साथ ही उन्होंने पारंपरिक वस्त्रों को त्यागकर नीली किनारी वाली साड़ी त्यागने का फैसला किया। मदर टेरेसा ने कलकत्ता के लॉरेंटो कान्वेंट स्कूल में एक शिक्षक के रूप में बच्चों को शिक्षित करने का कार्य भी प्रारम्भ किया। मदर टेरेसा की जन्मशती पर डॉयचे ऑफ वेले-जर्मन  रेडियो से खास बातचीत में नवीन चावला ने कहा, “बीस साल तक लॉरेटो कॉन्वेंट में पढ़ाने के बाद उस महिला को समझ में आता है कि उसकी जिंदगी तो सड़कों और झुग्गियों के लिए लिखी है। यह पहला और इकलौता मामला रहा, जिसमें वेटिकन ने एक नन को नन रहते हुए सड़कों पर जाने की इजाजत दी। कोई साथी नहीं, कोई मददगार नहीं, कोई पैसा नहीं। उन्होंने अपने कार्य को पूरा किया। सिर्फ अकेले। उनकी जिन्दगी वास्तव में एक रहस्य थीA
 सन् 1949 में मदर टेरेसा ने गरीब, असहाय व अस्वस्थ लोगों की मदद के लिए 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' की स्थापना की, जिसे 7 अक्टूबर 1950 में रोमन कैथोलिक चर्च ने मान्यता दी। इतना ही नहीं, मदर टेरेसा ने 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' के नाम से आश्रम खोले। जिनमें वे असाध्य बीमारी से पीड़ित रोगियों व गरीबों की स्वयं सेवा करती थीं। जिसे समाज ने बाहर निकाल दिया हो, ऐसे लोगों पर इस महिला ने अपनी ममता व प्रेम लुटाकर सेवा भावना का परिचय दिया। मदर टेरेसा ऐसी रोशनी  का नाम है.
Dr. Kanhaiya Tripathi


कलकत्ता जीवन नहीं जन्नत देने लगा
पीड़ित मानवता के लिए समर्पित मदर टेरेसा ने स्वयं सेवी संस्थाओं का जाल बिछा दिया । 'मिशनरीज ऑफ चेरिटी' नामक संस्थाओं के केन्द्र द्वारा ये संचालित होती हैं । नि:स्वार्थ भाव से मानव सेवा के लिए समर्पित इसके माध्यम से सेवा कार्य में संलग्न हैं 'मिशनरी ब्रादर्स ऑप चेरिटी' नाम से पुरुषों के लिए भी एक संगठन है। एक और संस्था है 'मदर टेरेसा के सहयोगी कार्यकर्ता' इसमें विविध धर्म, हर क्षेत्र और हर प्रकार की सहायता के लिए द्वार खुले हुए हैं।
कलकत्ता के लोअर सरक्युलर मार्ग पर बेसहारा बीमार बच्चों के लिए 'निमर्ल शिशु भवन' नामक संस्था संचालित है! इसके माध्यम से देश भर की इसकी शाखाओं में तीन हजार से भी अधिक बच्चे पल रहे हैं। जिन्हें उनके माता-पिता ने निर्मम होकर मरने के लिए बेकार मान कर फेंक दिया था, वे मदर टेरेसा से प्यार पाए । उन्हें सुयोग्य नागरिक बनने की शिक्षा-दीक्षा के लिए इन केन्द्रों में पर्याप्त प्रबंध सेंट मदर टेरेसा ने किया ।
कलकत्ता के काली मंदिर के पास ही एक धर्मशाला में 'निर्मल ह्रदय' स्थापित है। मृत्यु की प्रतीक्षा करते लोगों के लिए इसमें सेवा-सुश्रुषा की व्यवस्था है। इस तरह के ३२ से अधिक केन्द्र देश में संचालित हैं, जिनमें २००० से भी अधिक बेसहारा मरणासन्न रोगियों को वात्सल्य् भरी मानसिक शांति और सुश्रुषा उपलब्घ कराई जाती है।
कलकत्त्ते के पास ही शांतिनगर में कुछ रोगियों के लिए ३४ एकड़ भूमि में इलाज के लिए पुनर्वास और रोजगार के लिए साधन जुटाये है। इस तरह के ६७ केन्द्रों के द्वारा ४४, ००० से भी अधिक कुष्ठियों की चिकित्सा तथा रोजगार की व्यवस्था है।
स्कूलों, डिस्पेन्सरियों में, मातृ एवं शिश गृहों, रिलीफ सेन्टर  आदि के माध्यम से हजारों बच्चें, बीमारों, अनाथों, विकलांगों आदि को सहायता दी जाती है। इस प्रकार 'समाज-सेवा, को नहीं, मानव-सेवा' का मूल केन्द्र मानकर 'मदर टेरेसा' ने मूक मानवता की बहमूल्य सेवा की है। उनकी सेवा संस्थाओं का जाल तेजी से फैला, यह पीड़ित मानवता के लिए बहुत ही शुभ है। जो कलकता कभी लोगों के लिए मरण-स्थल था वही जन्नत बन गया यह कोई मदर ही कर सकती थीं इसमे कोई दो  मत नहीं कि मदर टेरेसा इस कार्य को सम्पन्न की हैं.
'सादा जीवन उच्च विचार' की मूर्ति  मदर टेरेसा  का जीवन वास्तव में  बहुत ही सादा था ।   वे बिना थके लोगों की सेवा करती थीं, नवीन चावला उन्हें बार-बार याद करते हुए कहते हैं, 'जब मैंने उनसे पूछा कि आप एक कुष्ठ रोगी को कैसे साफ करती हैं, तो उन्होंने मुझे समझाया कि ये मरीज नहीं है, मेरे लिए ये मेरा भगवान है। ये मेरे लिए जीजस क्राइस्ट है। जो बच्चा सड़क पर मिलता है, वह भी भगवान है, जो लंदन के वाटरलू ब्रिज के नीचे रहते हैं, वे भी भगवान हैं। जो कोई उनके साथ बात भी नहीं करता और मैं उनको खाना देती हूँ। तो मेरे लिए ये सब लोग जीसस क्राइस्ट हैं। ये सब मेरे भगवान हैं। शायद यही बात उन्हें गरीबों और असहायों की मदद को प्रेरित करती थी।' करुणा की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है.
दो नवम्बर, २००७ को जब भारतीय प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील कोलकाता पहुंचीं तो वह भाव विहवल हो गयीं. उन्होंने उस अहिंसा, करुणा और सेवा की प्रतिमूरी के बाते में कहा १९८४ में मदर टेरेसा की उपस्थिति में मदर टेरेसा महिला विश्वविद्यालय एक महान हस्ती, असाधारण मानवतावादी और नोबल पुरस्कार विजेता के नाम पर स्थापित हुआ था, यह महिलाओं को विशेषकर शिक्षा द्वारा गरीब और वंचित महिलाओं को सशक्त बनाने के लिए पूर्णतः समर्पित असाधारण संस्था है. यह एक राष्ट्रपति द्वारा कहा गया, यह शब्द हमें बताते हैं कि वह कितनी महान महिला थीं. मदर टेरेसा को ही याद करते हुए महामहिम प्रतिभा देवीसिंह पाटील जी ने यह कहा कि
यदि सभी बृक्ष मिलकर एक बृक्ष बन जाएँ तो वह कितना विशाल बृक्ष होगा,
यदि सभी नदिया मिल कर एक नदी बन जाएँ तो वह कितनी विशाल नदी होगी।
यदि विश्व की सभी महिलाओं का स्वर एक हो जाए तो विश्व में शान्ति, समृधि और खुशहाली लाने के लिए, वह कितना शक्तिशाली स्वर बन जाएगा।
हमें महामहिम के इन शब्दों को मदर टेरेसा के सेवा, प्रेम, करुणा और सद्भावनारूपी स्वर के रूप में लेना चाहिए और निःसंदेह उस महान महिला के कदमों पर दो कदम चलकर कुछ करना चाहिए। मदर टेरेसा 5 सितम्बर, १९९७ को हमसे रुखसत हो गयीं लेकिन उनके खींचे लकीर आज हमें सेवाभावना के लिए खींच रहे हैं. भारत की महिलायें जो महिला प्रश्न की राजनीति कर रहीं हैं उन्हें खास तौर पर मदर सीख दे रहीं हैं कि कुछ स्वयं करके बुलंद हो जाओ किसी मर्द से माँगने पर भीख से अच्छा है कि मिसाल बनो.
मदर टेरेसा के कर्त्तव्य भावना और सेवा भावना से यह भी सीखने को मिलता है कि मनुष्य जाति सेवा से जो कतराती है उसको तो इस भावना को निकाल देना चाहिए कि वह अगर किसी अपाहिज को सड़क पार करा देगा तो उसका समय नष्ट हो जाएगा. हमारे हिन्दुस्तान में सेवा भावना खत्म हो रही है इसमें दो मत  नहीं, वह कैसे फिर अपना अस्तित्वा पाएगी यह महत्वपूर्ण प्रश्न है. भारत एक अरब, इक्कीस करोर आबादी वाला देश है. आज इसमे जितनी तेजी से आबादी का विकास हो रहा है उतनी तेजी से सेवा भावना का क्षरण भी जारी है , यह न हिन्दुस्तानी जनता के हित में है न ही मदर टेरेसा के सेवाभाव का कोई प्रभाव इस जड़ता को मदर त्यागने की हमसे अपेक्षा कर रहीं हैं, अब देखना यह है कि इसमे अगुआई कौन करता है.
वह आज हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी कीर्ति और उनका कार्य हमारी प्रेरणा का आधार है. महिलायें मदर के रस्ते पर चलकर पुरुषों को आगे ला सकतीं हैं वह स्वयं कब आगे बढकर पुरुषों को आगे लाती हैं इस वक्त के इंतज़ार में सभी हैं.
महात्मा गांधी अंतर्राष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा-४४२००१ (महाराष्ट्र)
मो. 09765083470, Email: hindswaraj2009@gmail.com


Friday 29 April 2011

सड़क पर मौत



डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

विश्व में प्रत्येक वर्ष सड़क पर विश्व के 50 लाख लोग अपना दम तोड़ देते हैं, यह आंकड़ा है डब्ल्यू.एच.ओ. का। इस आंकड़े में यह कहा गया है कि हमारे लोग हमसे सड़क पर छिन जाते हैं और हम हाथ मल कर रह जाते हैं। यह आश्चर्यजनक आंकड़ा हमें एक पल के लिए मौन कर देता है।
सड़क सुरक्षा पर विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैश्विक रिपोर्ट में यह कहा गया है कि लगभग पांच करोड़ लोग प्रति वर्ष घायल होते हैं। यह आंकड़े 25 से 65 वर्ष के लोगों के हैं जो इसमें आहत हो रहे हैं या घायल हो रहे हैं। यह घायल जो लोग हो रहे हैं वह अपने लिए और अपने देश के लिए महत्तवपूर्ण हैं। यह वे लोग हैं, जिनका जीवन अवरुध्द हो जाता है और अपनी मुरादें पूरी नहीं कर पाते हैं। ऐसे लोगों के जीवन का कोई मोल है या नहीं, यह तो प्रत्तयेक नागरिक पूछ सकता है। दूसरी बात इस आयु वर्ग के लोग युवा हैं और दुनिया को बदलने का माद्दा रखते हैं।
 फिलहाल हम एक नज़र उस ओर भी दौड़ा लें जो भारत देश कर रहा है। विगत् दिनों विज्ञान भवन में इस पर एक कार्यशाला हुई और उसमें भारत के जिम्मेवार पदों पर बैठे लोगों ने चिंता जाहिर की और कुछ रण्ानीतियां बनायी। इसमें केन्द्रीय सचिव का कहना था कि 2011 से 2020 के लिए सड़क सुरक्षा कार्य योजना विकसित करने के लिए घातक और गैर घातक सड़क दुर्घटनाओं से शरीर पर जो नुकसान होता है, उससे आर्थिक विकास में बाधा पहुँचती है।
इस दस वर्षीय डब्ल्यूएचओ की पहल पर अन्तर-मंत्रालयी बैठक में ऐसी योजना तैयार की जा रही है जिससे सड़क दुर्घटना को रोका जा सके। इस बैठक में सड़क परिवहन, गृह मंत्रालय..... के अलावा भारतीय राष्ट्रीय राजमार्ग के प्रतिनिधि के अतिरिक्त डब्ल्यूएचओ, आईआईटी, केन्द्रीय सड़क अनुसंधान संस्थान एवं भारतीय आटोमोबाइल निर्माण के विशेषज्ञ शामिल हुए।
महानिदेशक स्वास्थ्य का कहना था कि आपातकालीन ट्रामा केयर सुविधा में उन्नयन के लिए एक योजना का कार्यान्वयन सरकार कर रही है। जिसका उद्देश्य सड़क हादसे में घायल लोगों को शीघ्र चिकित्सा की पहुँच में लाना है। इस योजना के तहत 732.75 करोड़ रुपये का प्रावधान है। जिसके तहत 140 आपातकालीन ट्रामा केयर केन्द्र का विकास किया जाएगा। यह 5846 किमी को कबर करेगा और इसका कुल नेटवर्क 7716 किमी है जो दिल्ली, कोलकाता, चुन्नई, मुम्बई और दिल्ली को सम्पर्क साधते हुए कश्मीर से कन्याकुमारी और सिल्वर से पोरबन्दर को जोड़ती है। 11 वीं पंचवर्षीय योजना में तो 15 राज्यों में 113 ट्रामा सेण्टर बनाए गए लेकिन सरकार का लक्ष्य है कि 12वीं पंचवर्षीय योजना में 160 ट्रामा सेण्टर को और बनाया जाए।
यह सरकारें भी क्या रणनीति बनातीं हैं। ट्रामा सेण्टर से सड़क दुर्घटना को रोकने की कोशिश नहीं है, यह उन हादसे में मौत से जूझते हुए लोगों को गहन चिकित्सा कक्ष तक ले जाने की कोशिश है। सबसे पहले तो इस बात पर जोर देना चाहिए कि हमारे मानव संसाधन किस प्रकार विकसित हों कि यह हादसे न हों, लेकिन नहीं उसके बाद की चींजें सोची जा रही है। वास्तव में इससे यह प्रतीत होता है कि सरकार दूरदर्शी है। एक तरह से देखा जाए तो उसकी यह रणनीति मुझे भी पसंद है लेकिन सरकार को सड़क पर मौत हो ही नहीं इस पर ज्यादा चिंतित दिखाई देनी चाहिए।
लेकिन नहीं, हो कुछ और रहा है। सरकार के आंकड़े और डब्ल्यूएचओ की पहल की तारीफ की जानी चाहिए लेकिन इसके सही विकल्प की पहल प्राथमिक तौर पर यह होनी चाहिए कि सड़क के नियम जो बनाए गए हैं, वही कम से कम पालन किए जाएं। सड़क को हम किस प्रकार विकसित करें कि ये मौत का अड्डा न बन सकें, यह जरूरी है। इसके लिए व्यापक रणनीति और दीर्घकालिक योजना पर विशेषज्ञों के कार्य की जरूरत है। सरकार इस पर क्या कर रही है, यह सबको पता है।
सड़क ट्रामा केन्द्र के लिए उन एनजीओ की मदद ली जाती है जो अपने प्रोजेक्ट को अच्छे कमीशन के साथ पास कराते हैं। ऐसे एनजीओ बड़ी मुश्किल से समय पर पहुँचते हैं, तो इन एनजीओ से क्या अपेक्षा की जा सकती है। राज्य का ट्रासपोर्ट कमिश्नर उन्हीं लोगों की फाइल केन्द्र सरकार को पहुंचाता है जिनके दलाल उसे ठीक से पैसे पहुंचाते हैं। ऐसे में हमारी सड़क सुरक्षा पर हो रहा मंथन क्या नया कर सकेगा, यह कहना मुश्िकिल है। सड़क पर मौत भी अब चिंता पैदा कर रही है, यह मानवीय करुणा का एक प्रकार से उदय है। लेकिन भ्रष्टाचार के अस्त हुए बगैर न तो हम सड़क को सुविधाजनक बना सकते हैं और न ही मनुष्य के लिए सहायक। इस प्रकार सड़क पर होती मौत की फिक्र और बैठकें महज औपचारिकता के अतिरिक्त कुछ और नहीं लगती। आमतौर पर देखा जाए तो देश का नागरिक अपने राज्य से पूर्ण सुरक्षा चाहता है। राइट टू लाईफ और राइट टू सिक्योरिटी के लिए राज्य प्रतिबध्द है लेकिन सड़क पर मरते लोगों के प्रति उसकी क्या जिम्मेवारी है, इससे वह बेखबर है। यह किसी भी राज्य के लिए चुनौतीपूर्ण है कि वह सड़क की मौत को रोक सके लेकिन उस पर नियंत्रण तो वह कर ही सकता है।
इसका जो जोरदार पहलू है जागरूकता उसमें सरकार पीछे रह गयी है। इसे कैसे उन्नत बनाया जा सकता है, यह गौर तलब है। जागरूकता के साथ जरूर हम सफल हो सकते हैं। लेकिन इसमें भी एनजीओ सेक्टर को शामिल करने पर कोई आशा की किरण फैलेगी, यह असंभव है। फिलहाल बगैर किसी प्रतिक्रिया के नागरिक समाज के लोग मौन इन मौतों को देखने के लिए विवश हैं, जो ठीक नहीं है।

डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)
मो. 09765083470 bZ-esy% kanhyatripathi@yahoo.co.in
 or kanhaiyatripathi@indiatimes.com

यह कैसी लोकपाल समिति?


डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
लोकपाल बिल के लिए अन्ना हजारे ने आमरण अनशन किया। वह भ्रष्टाचार को मिटाना चाहते हैं। उनको पहले वैयक्तिक साधुवाद! अन्ना हजारे दिल से बहुत ही अच्छे हैं। वह किसी तरह की राजनीति से प्ररित हैं, ऐसा कोई आज की तारीख में नहीं कह सकता है। अन्ना हजारे के साथ बैठे कुछ लोगों पर जरूर कुछ लोगों का संदेह है। वह साथ के लोग कहीं न कहीं अपनी राजनीति, अपना कद इसी गंगा में नहाकर ऊँचा कर लेना चाहते हैं। कुछ लोगों की बात बन भी गयी। कफद लोग फोटो खिंचवा लिए अपने आने वाली नश्लों को बताने के लिए कि मैं भी अन्ना का सिपाही, उनकी दाहिनी बांह वगैरह, वगैरह था। खैर, यह कोई बड़ी बात नहीं है। यह तो प्रत्येक आन्दोलन में कुछ लोगों द्वारा किया जाता है।
मेरा कुछ प्रश्न है जिसे आज का भारत पूछ सकता है। क्योंकि जिन लोकपाल विधेयक के लिए यह आन्दोलन किया गया, उसका मुख्य उददेश्य है-भ्रष्टाचार पर काबू। सरकार चाहती थी या नहीं चाहती थी, यह हम नहीं तय कर सकते। सरकार के ही तरफ से संसद सदन शुरू होने से पहले यह बात आयी थी  िकइस बजट सत्र में लोकपाल विधेयक भी आएगा जो पिछले कुछ दिनों से लम्बित है। फिलहाल वह नहीं पेश किया जा सका और सरकार को अन्तत: घेरकर उसे लाने के लिए अन्ना हजारे आगे आए।
लोकपाल बिल के लिए अब एक समिति बना दी गयी है जिसके दस सदस्य हैं। इनके बीच रोज कुछ कटाक्ष किए जा रहे हैं। कोई किसी से पद से हटने के लिए कह रहा है तो कोई यह कह रहा है कि इससे कोई भ्रष्टाचार नहीं रुकने वाला है। सबसे दिलचस्प बात यह है कि इस समिति के जो दस सदस्य हैं, उनका नाम इस प्रकार है-प्रणब मुखर्जी, कपिल सिब्बल, वीरप्पा मोइली, पी. चिदम्बरम्, सलमान खुर्शीद, यह सभी सरकार की ओर से प्रतिनिधि हैं। तथाकथित समाज के प्रतिनिधि हैं-अण्णा हजारे, अरविन्द केजरीवाल, शांति भूषण और संतोष हेगड़े।
जी, दस सदस्यीय समिति के यह नाम हैं जो भारत के एक अरब इक्कीस करोड़ जनता का प्रतिनिधित्व करते हुए हमारे लोकपाल बिल को लाएंगे। एक लोकायुक्त बैठाएंगे और इनका मानना है कि इससे भ्रष्टाचार खत्म होगा। हम सरकार को घेर सकेंगे। इसमें से जो सरकार के प्रतिनिधि हैं वह इस पर सहमत नहीं हैं और फिर भी सरकार की ओर से कार्य करेंगे।
इस लोकपाल बिल के जो सदस्य नामित हुए हैं, वह लोकतांत्रिक हैं। वह लोकतंत्र जानते हैं। वह लोतंत्र के पैरोकार हैं। वह देश के भ्रष्टाचार को समाप्त करना चाहते हैं। लेकिन उनसे एक प्रश्न है मेरा भारत की जनता की ओर से कि क्या जो समिति बनी है उसमें कोई महिला सदस्य है? क्या कोई नव युवक है? क्या कोई आदिवासी है? नेता जी लोग हैं और रिटायर्ड स्वघोषित समाजसेवी लोग हैं। जब आधी आबादी का प्रतिनिधत्व करने वाली महिला सदस्य नहीं हैं तो कैसा लोकतंत्र? जब भारत की जनता को यह पता है कि भारत नव जवानों के बल पर आगे बढ़ रहा है। यहां की 50 प्रतिशत से अधिक आबादी नव युवकों की आबादी है, वह नहीं हैं तो कैसा लोकतंत्र? अब देश के कुछ 60 पार कर चुके लोग लोकपाल बिल और लोकायुक्त बैठाएंगे तब इस देश का भ्रष्टाचार खत्म हो जाएगा।
जब यह अनशन चल रहा था तभी कोई फेसबुक पर लिखा था कि यह हाई क्लास समिति बनाने और उसमें जगह पाने की कोशिश हो रही है, बाकी कुछ नहीं। वह लगभग शत-प्रतिशत सच निकला। क्यों नहीं अन्ना हजारे बोले कि नहीं, इसमें कम से कम दो तिहाई महिला सदस्य बनाए जाएंगे। मैं खुद इस समिति में नहीं रहूँगा। सरकार के लोग रहेंगे लेकिन उनकी छवि विल्कुल साफ सुथरी होगी? क्यों उनक ेअब सम्पत्तिा के घोषणा करने के कलए सिफारिश की जा रही है? और सबसे बड़ा प्रश्न यह कि इसमें नवयुवक क्यों शामिल नहीं हैं?
यह ऐसे सवाल हैं जो किसी जनान्दोलन की साख पर प्रश्नचिन्ह खड़े करते हैं। अन्ना हजारे व्यक्तिगतरूप् से बहुत ईमानदार हैं लेकिन उनका 70 के बाद वाला दिमाग क्लिक थोड़ा हल्का कर रहा है। उनके दाहिने-बाएं जो कहेंगे वह उसे मीडिया में जारी कर देंगे। मुझे तो शक है कि कोई देश का अच्छा, ईमानदार व्यक्ति लोकायुक्त बन सकेगा।
भारत के लिए यह शर्मनाक है  िकवह महिलाओं को दरकिनार करके कोई रणनीति बनाता है। कोई मसौदा पारित करता है। इससे वह न तो एक लोकतांत्रिक भारत की छवि प्रस्तुत करता है और न ही उसकी अपनी छवि मजबूत हो पाती है। भारत के जनान्दोलनकर्ता भी इससे निजात दिलाने में कामयाब नहीं हो सके। मौजूदा समिति इस बात की एक सशक्त दलील है। भारत का युवा और आधी आबादी से वंचित समित प्रतिनिधित्व से गठित लोकपाल बिल और लोकायुक्त से भारत का भ्रष्टाचार मिटेगा, यह वास्तव में आज संदेहपूर्ण है। फिलहाल, जैसा कि प्राय: होता है। औपचारिक प्रयास तेज हो चुके हैं। आपसी सौहार्द से यदि कोई विकल्प अगर सकारात्मक आएगा तो खुशी होगी भारत की जनता।


 पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
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Thursday 24 March 2011

डॉ. लोहिया की राह भूलते लोग

लेहिया  के जन्म दिवस (23 मार्च) पर विशेष
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी



आज जब सम्पूर्ण विश्व में अस्त्र-शस्त्र की होड़ मच गयी हो और अपने देश भारत वर्ष में जाति और सम्प्रदाय में विभाजन शिखर पर हो तो कैसे न हमें याद आएंगे डा. राममनोहर लोहिया ? कैसे हमें सप्तक्रांति के जनक का ध्यान न आएं। क्योंकि आज की परिस्थितियों में हमारा जीवन विभिन्न त्रासदियों का सामना करने पर मजबूर होता जा रहा है। नि:संदेह डा. लोहिया का व्यक्तित्व और कृतित्तव हमें ऐसे त्रासदियों व मुक्ति दिलाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहा है कभी विचारों के माध्यम से तो कभी व्यवहारों अर्थात क्रांति और आन्दोलनों के माध्यम से।
डा. लोहिया का जन्म सन् 1910 में 23 मार्च को अकबरपुर, फैज़ाबाद (अब अम्बेडकर नगर-जनपद), उत्तार-प्रदेश में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हीरालाल लोहिया, माता का नाम चन्दा था। सन् 1918 में पिताश्री हीरालालजी अहमदाबाद गये तो लोहिया भी साथ में गये वहीं कांग्रेस अधिवेशन के दौरान गांधीजी का प्रथम दर्शन हुआ, उस समय वह मात्र आठ वर्ष के थे। उच्चशिक्षा के लिए वे 1929 में छ: माह इंग्लैण्ड में बिताकर शोध हेतु जर्मनी में रहे। उन्हें 1932 में हुम्बोल्ड विश्वविद्यालय, बर्लिन, (जर्मनी) से पी-एच.डी. की उपाधि (अर्थशास्त्र में) प्राप्त हुई। कहते हैं उनका प्रतिरोधी स्वर वहीं से बुलन्द हुआ। 23 अप्रैल 1942 में सेवाग्राम में गांधीजी से पुन: उनकी वार्ता हुई। 8 अगस्त को वे 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में सम्मिलित हुए। 9 अगस्त को भूमिगत हुए और अगस्त में ही भूमिगत रहते हुए उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 'जंग जू आगे बढ़ो' का प्रकाशन कराया। सितम्बर में उनकी दूसरी पुस्तक 'मैं आज़ाद हूँ'  तथा नवम्बर में तीसरी 'करो या मरो' पुस्तक का प्रकाशन हुआ। 
 वह ईरादों और अपने वसूलों के पक्के थे। इसकी एक मिसाल, 1953 प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के पांच आधारभूत सिध्दांतों की घोषणा की गयी उनका विचार स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ कि कांग्रेस के साथ मंत्रिमंण्डल में शामिल नहीं होना चाहिए। वह सत्ता के खिलाफ रहे। 1954 में नहर रेट आन्दोलन लोहिया द्वारा चलाया गया जिसमें उन्हें 1500 कार्यकर्ताओं के साथ जेल यात्रा करनी पड़ी। इतना ही नहीं निहत्थे मजदूरों पर गोलियां चलाने वाली केरल सरकार से उन्होंने इस्तीफा मांगा जिससे अन्य नेताओं ने उनके प्रति पुरानी आत्मीयता को घटा दिया किन्तु उन पर कोई असर नहीं हुआ। सन् 1956 का लगभग एक लाख कार्यकर्ताओं के जुलूस जो हुआ था डा. लोहिया के नेतृत्व में, वह आज भी प्रसिध्द है। जाति-प्रथा के विरोधी डा. लोहिया ने हरिजन को मंदिर में प्रवेश कराया जिसमें उनकी गिरफ्तारी हुई। हाँ, 1956 डा. लोहिया के लिए महत्तवपूर्ण वर्ष था क्योंकि 'मैनकाइण्ड' का प्रकाशन उन्होंने इसी वर्ष किया था। 1957 में डा. लोहिया वाराणसी क्षेत्र के चकिया चन्दौली लोकसभा के लिए चुनाव लडे क़िन्तु परिणाम संतोषजनक नहीं रहा। लेकिन अपनी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विकास की जो लड़ायी थी उसे उन्होंने जारी रखा। सिविल नाफरमानी करते हुए वे इस साल भी पांच हजार लोगों के साथ जेल गये।
1962 में, डा. लोहिया पं. जवहारलाल नेहरू के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लडे फ़ूलपुर लोकसभा क्षेत्र से किन्तु संयोगवस उन्हें सफलता नहीं मिली। 1962 में 'अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन' हैदराबाद में उन्होंने आयोजित किया और देश जब चीनी युध्द के दौर से गुजरने लगा तो डा. लोहिया ने सरकार के दायित्तव पर समाज का अंकुश लगाने पर जोर दिया। सन् 1963 में फर्रूखाबाद संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव हुआ तो ऐतिहासिक जीत डेढ़ लाख मत प्राप्त कर की और ससंद पहुंचे। संसद सत्र में वे आज के कुछेक मूकबधिर सांसदों में से स्वयं को नहीं गिनाये और न ही बाहुबलीरूप में। 23 अगस्त को 'तीन आना बनाम बारह आना' शीर्षक से ऐतिहासिक महत्तव के उनके भाषण की चर्चा आज भी होती है। 12 अगस्त, 1967 को संसद में उनका अंतिम भाषण हुआ। 20 अगस्त, 1967 में उन्हें बिलिंगटन हास्पीटल में ग्रंथि आपरेशन के लिए भर्ती कराया गया जहाँ वे जेल में बंद कैदी से बड़ा कैदी बन जाने जैसा महसूस किए। 12 अक्टूबर, 1967 को गरीबों, दलितों, शोषितों, वंचितों के मशीहा का प्राणान्त हो गया।
सप्तक्रांति' में भी अन्याय के खिलाफ लड़ायी, अन्तरराष्ट्रीय गैर-बराबरी के विरुध्द संघर्ष, राष्ट्रीय गैर-बराबरी के विरुध्द संघर्ष, खर्च पर सीमा, गरीबी के खिलाफ क्रांति, जाति-प्रथा का अन्त विशेष अवसर देकर, और हर सम्भव बराबरी की प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्षरत रहना लोहिया की स्वाभावगत लड़ाई थी। यह कोई बनावटी लड़ायी नहीं थी।
          सचमुच आज डा. लोहिया और उनकी सप्तक्रांति एक बार पुन: सबकी दृष्टिकोण व सबकी सोच में प्रासंगिकता बनाने में सफल हुई है क्योंकि उन्होंने समाजवादी होते हुए भी किताबी समाजवाद का अनुकरण नहीं किया। उन्होंने क्रांति का आह्वान करते हुए भी क्रांति के केवल एक नारा नहीं बनने दिया। पूर्व राष्ट्रपति डा. नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें 'सामाजिक, आर्थिक समस्याओं के प्रति जागरूक' कहा तो वहीं पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 'महान योध्दा, क्रांतिदर्शी, पददलितों और शोषितों के मसीहा बताया। सोसलिस्ट पार्टी के नेता मधुलिमये ने उन्हें 'महात्मा गांधी का सच्चा उत्ताराधिकारी' माना।
आज लोहियावादी लोग लोहिया के मूल संदेश को भूल रहे हैं, यह ठीक नहीं है। लोहिया का संवाद अगर जनता से था तो उनके उत्ताराधिकारियों को चाहिए कि वह लोहिया के लोगों का पूरा ख्याल रखें। यदि यह नहीं हो पाता तो इसमें कोई दो मत नहीं कि उन्हें लोहियावादी कहलाने से बचना चाहिए। लोहिया के कर्म और कर्म जैसा धर्म उनका अपने जीवन में दिखा और लोहिया के मानने वाले लोगों का भटकाव अब दिख रहा है, यह लोहिया के प्रति लोगों का एक प्रकार का धोखा है। न जाने कब वह दिन आएंगे जब लोहिया का अपना भारत उनके सपनों सा अस्तित्व पा सकेगा।

पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
Residential Address: Maheshpur, Azamgarh-276137(UP). Mo. 09765083470

Tuesday 22 March 2011

चरखा जो कभी अस्मिता का प्रतीक था!

कन्हैया त्रिपाठी -
मनुष्य बिरादरी का अन्तिम लक्ष्य क्या है, इसकी अगर पड़ताल की जाए तो यह पता चलता है कि मनुष्य अन्तत: आनन्द की प्राप्ति चाहता है। सुख उसका प्रथम लक्ष्य है। आजादी से पूर्व और अब भूमण्डलीकरण के युग में भी अगर विभिन्न परिस्थितियों से मनुष्य संघर्ष कर रहा है तो उसके संघर्ष का अंतिम उपक्रम उसके सुख पर जाकर सिमट जाता है। यह बात अलग है कि इसमें से कुछ सार्थक जीवन जीते हुए अपने समाज और दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं। जो दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं उनकी दूरदर्शिता उन्हें इस काबिल बनाती है। वस्तुत: वह अपने साधन और साध्य में फर्क करके अपनी योजनाओं को मूर्तरूप देते हैं, इसलिए समाज हित में कुछ रचनात्मक कर गुजरते हैं।
गांधीजी ने सन् 1909 में एक छोटी सी किताब लिखी थी-हिन्द स्वराज। उसमें साधन और साध्य का मूलमंत्र उन्होंने दिया था। उस पुस्तक में गांधीजी ने ऐसी सभ्यता का विरोध किया था जो मनुष्य के 'स्व' का सर्वनाश करती हो। इसके बदले वह एक 'अहिंसक सभ्यता' ईज़ाद करते हैं जिसके माध्यम से मनुष्य छोटे व लघु उद्योग-धन्धों को अपनाकर स्वावलम्बी बन सके।
हम देखेंगे कि उन दिनों सशक्त विकल्प के रूप में 'चरखा' और 'खादी' अपनाने पर गांधीजी ने बल दिया। उनकी खादी के जरिए स्वदेशी सभ्यता की अनुगूंज थी, और उनका मानना था कि यह गरीबों का सहारा है, दुखियों का बन्धु है और अन्धे की लाठी है।
चूँकि गांधीजी यह जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है इसलिए भी वह चरखें के सहारे गांव को खुशहाल बनाने का स्वप्न देखते थे। उनका मानना था कि बड़े उद्योग किसी भी तरह भारतीय ग्रामीण सभ्यता के लिए लाभप्रद नहीं हैं और इससे ग्रामीणों का पलायन भी सम्भव है। इससे निजात के लिए उन्होंने चरखे की ओर भारतीय मानस का ध्यान खींचा। वास्तव में, जिस भारत के करोड़ों लोगों के दो जून के भोजन की जरूरत हो उसकी भरपायी भले बड़ी मशीने कर दें लेकिन वह कभी उन्हें सम्मान भी उसी एवज में दे पाएंगी, यह असम्भव था।
चालीस और पचास के दशक में चरखा लोगों के जीवन के उत्कर्ष के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। चरखे से लोग आत्मानुशासन, धैर्य और स्वावलम्बन तो प्राप्त किए साथ ही भारत के लोग गुलामी से मुक्त हुए।
चरखे के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि यह आध्यात्म से जोड़ता है। इससे मनुष्य एकग्र होता है लेकिन इसके साथ यह चीजें भी गहरे चिंतन के बाद समझ में आती हैं कि यह थाली की रोटी को सृजित करता है। थाली की रोटी का मतलब, मनुष्य के छुधा का भंजक भी यह है। मनुष्य के आत्मिक संतुष्टि का विकल्प चरखा इन अर्थों में ईश्वर का साक्षात दर्शन बनकर हमारे सामने प्रकट होता है। इस प्रकार चरखा आध्यात्म है तो जीवनचर्या का संबल भी।
आज नई तकनीकें, प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान ने मनुष्य को इस योग्य बना दिया है कि उसकी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। लेकिन यह सम्पूर्ण आबादी का चित्र नहीं है। अभी भी हमारे देश की बहुतायत जनसंख्या गांवों में रहती है, उसके दो जून का निवाला अभी भी चरखा जैसे औजार दे सकते हैं जो कम लागत और कम परिश्रम से सुलभ हों। हमें विस्थापित न करें और हमें अपनों से दूर न करें। इसका विकल्प अब भी चरखा हो सकता है।
यह अच्छी बात है कि चरखा अब नए परिस्कृत रूप में हमारे सामने है। उसके नए संस्करण ने जमाने के हिसाब से सुगम तरीके से कताई की क्षमता प्राप्त कर ली है। इसलिए यह चरखा अब तो और हमारी गरीबी काट रही जनता का हमदर्द साबित हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसको कितनी तत्परता के साथ अपनाते हैं। गांधी ने अपनी पुस्तक में ऐसे ही उपक्रम को धारण करने की सीख दी है जिससे हमारी अपनी आत्म की छति न हो। अपने स्व को हम न खत्म कर दें। इसीलिए वह सच्चे साधन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता की बलिहारी, की वह अपने से विरक्त होने नहीं देती। वह अपने उन संजाल में फंसा रही है हम मनुष्यों को, जिनसे अगर हम उबर न सके तो हमारी अपनी आजादी छिन जाएगी। सन् 2007 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग के स्वर्ण जयन्ती समारोह में भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने कहा था खादी हमारे अन्त:करण की भावनाओं का हिस्सा, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी और ग्रामोद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का माध्यम है और इसमें रोजगार की विपुल सम्भावनाएं हैं। इन सम्भावनाओं को कौन तलाश रहा है? हमारे देश के लोग अपनी सम्भावनाएं ग्लैमर में ढूढ रहे हैं। विदेशों में तो लोग खादी पहनते हैं और चरखे की ओर भी उनका सकारात्मक रुझान है लेकिन भारत अपनी मूल चेतना से भटक रहा है, यह चिंतनीय है।
हम चरखे से अलग नहीं हो रहे हैं। बल्कि इसपर से यह समझ में आता है कि हमारी संकीर्णताओं और जरूरतों ने हमारे अपने से अलग कर रखा हैं। सम्बन्धों के साथ आज रोना है और अपने कुटीर उद्योगों के साथ यही रोना है कि ये हमारे विकास में सहयोगी नहीं हैं। यद्यपि यह एक मिथ है। इस मिथ से जब तक हम मुक्त नहीं होते तब तक हम चाहकर भी जुड़ नहीं सकते। यह हमारी कमजोरी है। अपनी आजादी के मुख्य अस्त्र आज विल्कुल हमारे लिए किसी काम के न रहे यह कहना हमारी भूल है। हमारे देश में आठ हजार दूकानों से खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग अपने माल तैयार कर रहा है और विपणन भी कर रहा है लेकिन यह हमारे लिए विल्कुल हास्यास्पद है कि भारत की 90 प्रतिशत जनता इससे विरत होना चाहती है। कमीशन के साथ जुड़े लोगों के बारे में भी ऐसी राय है कि यह वे लोग हैं जिनकी इस बहाने कोई अन्य दूकाने चलती हैं। इस प्रकार खादी और चरखे के साथ यह दशा होगी, किसी ने सोचा नहीं था। आज जब हम नए विश्व बाजार का सामना कर रहे हैं तो क्या अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर अपने चरखे से रूबरू हों, यह यक्ष प्रश्न है।

 पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
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पानी के लिए शोर


डॉ. कन्हैया त्रिपाठी -
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने जल दिवस के एक संदेश में कहा है कि विश्व को पानी के लिए संघर्ष करने का यह चुनौतीपूर्ण समय है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न ही गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुध्द पानी तक पहुँच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई सम्बन्धी सहस्राब्दि विकास लक्ष्य तक पहुँचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं। बान की मून की यह विश्व व्यापी चिंता जरूर सोचने के लिए बाध्य करती है।
फिलहाल पानी बचाने की मुहिम भारत में तेज हो रही है। भारत में अब लगभग ण्क शोर हरेक राज्य से आने लगा है कि पानी को कैसे हम संरक्षित करें। शहरीकरण जब से बढ़ा है और झुग्गी-झोपड़ियां अपने संख्या को बढाने लगी हैं तो यह चिंता और बढ़ गयी है। पेयजल केवल चुंकि हमारा संकट नहीं है। इसे किसी तरह तो पूरा किया जाएगा लेकिन यह जो कचरे में ईजाफा हो रहा है वह जरूर हमारे सरकार के लिए और शहरी आबादी के लिए चिंताजनक है। विश्व में लगभग बारह करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास सिंगल नल नहीं है। साफ-सफाई से वंचित लोग लगभग पचास लाख लोग हैं। अब सोचिए इनके भविष्य, जीवनचर्या का क्या होगा?
जल प्रबंधन की चुनौती झेलते हमारे शहर और शहरी आबादी को पानी के अभाव में थोक की बीमारियां जो मिलने वाली है वह अलग से। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारों का उच्चायोग पानी को सबके मानवाधिकार के रूप में बताया है। विश्व में साढ़े छ: अरब की आबादी के मानवाधिकार के रूप् में चिन्हित पानी की दशा यह है  िकवह खुद सबके मानवाधिकार का हिस्सा नहीं बन सकता।
श्लोगन, नारे और प्रसंविदाएं इसीलिए हमारे जीवन का अंग नहीं बन पाती हैं क्योंकि हम जिस उत्सुकता और गर्मजोशी से इसे पास करते हैं उतने ही जागरूकता से लागू करने में हम पीछे हो जाते हैं। दुनिया के राज्य ऐसे में एक खोखले वादे और घोषणाओं के एक एलीमेंट के रूप में देखे जाने लगते हैं
भारत में खुद पानी को लेकर जो बहस है वह कागजों पर ज्यादा है। कुछेक राज्य अगर जागरूक होकर अपने मिशन में भी जुट गए हों तो लगभग सवा अरब वाले भारतीय आबादी का कल्याण कैसे हो सकेगा। जमुना का पानी और गंगा पानी अब पवित्र है तो उन सहज लोगों के बीच जो अभी गंगा मैया और यमुना माता के रूप् में उसे जानते हैं। वे इतने सहज हैं कि उन्हें यह नहीं पता है कि हमारी गंगा और यमुना को कितने कचरों से दूषित किया जा चुका है। दिल्ली के लोग जानते हैं यमुना केबारे में कुछ कानपुर के लोग गंगा के बारे में जानते हैं। वह लोग किसी मंगल पर्व पर स्नान नहीं करना चाहते। उनके हिसाब स ेअब गंबा न तो नहाने लायक रह गयी और नही पवित्र करने लायक।
भारत सरकार एक राज्य के रूप में पानी जैसे मानवाधिकार को कैसे आम मनुष्य का हिस्सा बना सकेगी, यह तो एक चुनौती है। यह चुनौती इसलिए है क्योंकि हमारी सरकार के पास न तो नीति है और न ही नौकरशाह जो संरक्षण के लिए नीतियां बनी हैं, उसे जल्दी से लागू करना चाहते हैं। इस प्रकार एक संजाल में फंसी हमारी जल नीति हमारे जीवन से जो जुड़ी है वह इस पाले, उस पाले खेल के तरह खेली जा रही है।
पारम्परिकरूप से जल संरक्षण की बात भारत में बहुत पुरानी है। लेकिन जब से पानी सर्व सुलभ हुआ और लोग अपने निजी जीवन में उपभेगवादी बनने लगे लोगों का रुझान अपनी पारंपरिकता से विल्कुल अलग हो गया है। किसान भी अब जिस तरह से पहले अपने खेत-खलिहान और पांपरिकता को जीता था उससे अलग हो गया। ऐसे में जल संरक्षण एक वास्तव में चुनौती का सबब बन चुका है। शहर सोच रहा है गांव जल बचाएंगे। गांव सोच रहा है कि शहर स ेजल बचाया जाएगा लेकिन शहर प्लास्टिक ऑव दी वाटर का शिकार हो गया है। गांवों के लिए निगमीकरण के खिलाड़ी आस लगाए बैठे हैं कि कभी ऐसा वक्त जरूर आएगा जब निजीकरण के नाम पर हमें गांव में पानी बेचने के लिए दे दिया जाएगा।
इस प्रकार पानी के लिए बर्चुअल शोर एक भयानक शोर में तब्दील होने जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के उच्चायोग और दुनिया के राज्य इस फिराक में हैं कि कनवेंशन पास करके हमज ल क्रांति ला देंगे तो यह कोरी कल्पना है। रियो-डि-जनेरियों में 2012 का सम्मेलन पानी को केन्द्र में रखकर किया जाना है। इसके लिए तैयारियां जोरो स ेचल रही है लेकिन पानी क्या वास्तव में बचाया जाएगा, यह कहना मुश्किल है। यूएन. वाटर पैनल जहां टिकाऊ जल प्रविधि के लिए कार्य कर रहा है वहीं भारत सरकार के पास ऐसी एक भी टिकाऊ जल नीति के लिए कोई कमेटी नहीं बनायी गयी है। गरीबी, असमानता और रोजगार को दूर करने के लिए ऐसे में व्यापक योजनाओं को क्रियान्वयन करने की मंसा बना रही सरकार केवल पानी में सिमट जाएगी। सन् 2020 जिस भारत को हम विकसित राष्ट्र की श्रेणी में देखना चाहते हैं वह भी एक संकल्प के सिवा और कुछ न रह जाएगा। राष्ट्रीय जल अकादमी से जरूर कुछ आशाएं बढ़ी हैं जिससे भारत को अकादमिक पैमाने पर ऐसे जल विशेषज्ञ मिलेंगे और भारत अपनी नीतियां लागू कर सकेगा लेकिन आज जो आवश्यकता है उसे भी हमें देखनी है। भारत की जल नीति कैसे अपने वास्तविक जल संरक्षण के लिए काम करके भारत को चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम बना सके, इसे आज आपूर्ति करनी है। शहरी जल संकट को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि हम शहरी जल नीति तैयार करके एक स्वस्थ भारत को जनें, यह आज की मांग है। भारत का जल भविष्य नही ंतो हमसे आज जो प्रश्न पूछ रहा है। वह आने वाली पीढ़ियों के जीवन को न देख सकेगा। क्योंकि जब जीवन ही न शेष होगा तो हम और हमारी पीढ़ियों को पूछने के लिए क्या बचेगा?

 पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
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