Tuesday 8 January 2013


नये वर्ष के संकल्प पर टिके हमारे भविष्य
/डॉ. कन्हैया त्रिपाठी 
हम अब 2012 को अलबिदा कहकर 2013 में प्रवेश कर रहे हैं तो बीती बातें हमारे मन और मस्तिष्क को कुछ अलग ही तरह से रोमांचित कर रही हैं. सब मिलाकर कहा जाए तो पिछला पूरा वर्ष भारत के उपलब्धि के लिए कुछ ख़ास नहीं रहा. हाँ, एक बात ज़रूर हुई है कि हमें कुछ ऐसे सूत्र पिछले वर्ष ने जरूर दिया जिससे हम अपने भविष्य को बेहतर बनाने में मदद ले सकते हैं. भारत के जंतर-मंतर पर 29-30 तारीख को मोमबत्तियां अखंड रूप से जल रही हैं, यह क्यों जल रही हैं पूरे देश को पता है. अब अगर बीते वर्ष की हम बात करें तो वर्ष के शुरुआत में हम देखेंगे कि अन्ना और केजरीवाल का आन्दोलन शिखर छू रहा था तो वहीँ सरकार कुछ ऐसे पसोपेश में थी कि हम महंगाई की मार से आम आदमी को कैसे बचाएं. यद्यपि सरकार के इसमें कोई ज्यादा दोष नहीं रहे. बल्कि यह लगता है कि भारत ही नहीं पूरी दुनिया ही आर्थिक मार से अपने यहाँ के मनुष्यों को यह साहस बधाने का कार्य कर रही थी. हाँ, अन्ना के अनुसार जन लोकपाल नहीं बन पाया. इससे आम आदमी में निराशा दिखी. इसके भावी समय में फायदे का अंदाजा लगाया जा सकेगा कि जन लोकपाल का न बनना सरकार के या आमजन के, किसके हित में रहा.
अभी हाल ही में देश के प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह ने राष्ट्रीय विकास परिषद् के उदघाटन एवं समापन सत्र को संबोधित किया और इसमें कुल मिलाकर उनका यह कहना था कि कुछ चुनौतियाँ हमारे समक्ष खड़ी हैं और यह हम सबकी सामूहिक साझेदारी से यह दूर होंगी. उन्होंने जो दो-तीन मुख्य मुद्दे  को उठाया उसमें देश की विकास दर आठ प्रतिशत तक पहुंचाने और महिलाओं की सुरक्षा पर गंभीर होने का संकल्प था. इसके दो वजहें थीं. पहला यह कि पूरे वर्ष हम अपनी विकास दर नौ प्रतिशत करने के लिए जूझते रहे वह एक सपना था. वह पूरा नहीं हुआ. दूसरे वर्ष के जाते-जाते एक तेईस वर्ष की युवती के साथ क्रूर तरीके से बलात्कार हुआ. फिलहाल, जो विकास दर हम नौ प्रतिशत पहुंचाने की बात सोच रहे थे वह वक़्त के साथ आठ प्रतिशत के लक्ष्य पर रुक गयी है और यदि इतने बड़े पैमाने पर उस युवती के साथ वीभत्स बलात्कार मामले को मीडिया और आम आदमी आन्दोलन का रूप न दिया होता तो सामान्य तरीके से शायद मल परिषद् में चुनाव 2014 पर बातें होतीं.
खैर, समय के मुताबिक़ चुनाव पर नहीं बात करना प्रधान मंत्री जी की बुद्धिमानी है. लेकिन समावेशी समाज के विकास के लिए यह समझ में  नहीं आता कि योजनाकार हमारे आम जनमानस के लिए क्यों नहीं हमेशा चिंतित रहते हैं. हमारे देश के आधी आबादी को सुरक्षा नहीं है. गरीबी पर बहुत ज्यादा अंकुश नहीं लग पाया है. महंगाई अपने चरम पर है. सब्सिडी की कटौती से किसान और हासिये का जनजीवन गंभीर चुनौतियों का सामना कर रहा है. देश में तमाम तरह की बीमारियों और मल्टीनेशनल के दुकानदार से खाली हो रहे जेब दो जून के भोजन के लिए बेहाल होने के कगार पर है. ऐसे में, हम किस चौराहे पर खड़े हैं यह सोचने वाली बात है. सरकार ने एफडीआई को पास कर दिया और अब विदेशी लोग हमारे यहाँ खुदरा व्यापर कर सकते हैं. हमने एक कसाब को फ़ासी लगा दी उसके कारण तो आतंकवाद से हम जंग में विजयी होने का जश्न मना लें लेकिन विदेशी और मल्टीनेशनल के हांथों हमारी जो रोज हत्या हो सकती है वह खुली, यह हमारे लिए कितना उचित है कितना अनुचित यह बात एक बड़े विमर्श के लिए आमंत्रण  है.
प्रधान मंत्री जी ने एक और जल संसाधन परिषद् में कुछ अपने मंतव्य व्यक्त किये हैं. उन्होंने इस परिषद् को संबोधित करते हुए यह कहा है कि जैसा कि हम बारहवीं पंचवर्षीय योजना में हैं और भारती अर्थव्यवस्था तथा समाज को जल क्षेत्र में मात्रा और गुणवत्ता दोनों के सन्दर्भ में कठिन चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा. इसलिए तत्काल और व्यावहारिक निर्णयों की जरूरत है. क्योंकि जल सुरक्षा एक ऐसा मुद्दा है जहाँ हमें एक साथ तैरना है या एक साथ डूबना है. इन निर्णयों पर आपके सामूहिक समर्थन की जरूरत है. जल, जंगल, जमीन और जनमानस सभी के लिए प्रधान मंत्री चिंतित हों या न हों लेकिन कहीं न कहीं यह उनके भाषणों में जो चिंता आ रही है वह हमारे भविष्य की बुनियादी जरूरतों के कारण है और प्रधान मंत्री के लिए चुनौती है.
इन चुनौतियों के बीच पार्टियों से छूटटा आम मतदाता और सरकार से मुक्त होती जनता की जुबान कुछ नए इशारे कर रहे हैं. इसे अब सबको समझ लेना चाहिए. मलाला और दामिनी दो लड़कियों ने हम सबको एक बार अपनी ओर हमारा ध्यान खींचा है. महिलाओं के सुरक्षा, उनकी गरिमा और उनका स्वत्व से होता खिलवाड़ पूरे एशिया में अब एक नए तरह के आक्रोश की तरह उभरा है.
किसी की भी स्वाधीनता और उसके सम्मान बहुत मायने रखते हैं. बलात्कार पर कमेटियों का गठन और जांच भले हो जाए लेकिन जो कायदे से सरकार को कदम उठाने चाहिए वह है नैतिक मूल्यों से दूर होती जनता को पुनः मुख्यधारा में वापस लाना. यह सरकार को देर सबेर लाना ही पड़ेगा वरना कानूनों से देश में न ही कोई सम्मान बढेगा न ही किसी की सुरक्षा.
सम्मान के अतिरिक्त भी हमारी सबकी जिम्मेवारियां जो पर्यावरण, विकास और मूल्यों के संरक्षा के लिए है उसे भी आम जनता को नए वर्ष में नए संकल्प के साथ दुहराना होगा वरना इसमें कोई शक नहीं है कि हम पुनः उसी गलतियों के शिकार हों जिससे गए वर्ष में जूझते रहे हैं. भारतीय संस्कृति और सभ्यता अब इतनी मैली हो गयी है कि आज हमारे फेस बुक, ट्यूटर और अन्य न्यू मीडिया के माध्यम से हम शर्मिन्दित हैं. और कुछ ऐसा ही लिखकर अफसोस जाहिर कर रहे हैं. इससे मुक्ति सबके साथ-साथ संकल्प लेने से होगा और उस दिशा में दो कदम आगे बढ़ने से होगा. हमारे अपने सम्मान जब तक सुरक्षित नहीं हैं हम किसी भी उस मनोदशा को नहीं प्राप्त कर सकते जिससे हमारा विकास और उत्कर्ष होना है और हमारे मानव विकास सूचकांक में इजाफा होना है. शायद हम नए वर्ष में इन चुनौतियों को स्वीकार कर पुनः उन गलतियों को करने से बचें तो जरूर हम एक सही लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे. लेकिन जहाँ चुनौतियां हैं वहीँ हमारे पास संभावनाएं हैं आवश्यकता इस बात की है कि हम सही रास्ते पर जल्दी चलना शुरू कर दें और अपने मन में दया, प्रेम, करुणा एवं सह-अस्तित्व की मोमबत्तियां जलाएं.
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पता: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, (पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील के सम्पादक), सहायक प्रोफ़ेसर, अकादमिक स्टाफ कालेज, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 (मध्य प्रदेश), Mo: 08989154081, email: kanhaiyatripathi@yahoo.co.in, hundswaraj2009@gmail.com 

चिंतकों का सौन्दर्यबोध
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

भारत समेत दुनिया के लोग अपने-अपने ढंग से जीते हैं. उनके जीने की कला खुद की एक दुनिया को परिभाषित करती है. वास्तव में उनके जीने की पद्धति ही खुद में उनका सौन्दर्यबोध और मूल्यबोध की तरह होता है. सुन्दर होने के लिए दैहिक सौन्दर्य की आवश्यकता नहीं होती बल्कि सौन्दर्यशास्त्री ये कहते हैं की सुन्दर का सौन्दर्यबोध मूल्यगत होता है. इसका प्रमाण हमें हाल ही में प्रकाशित हुई अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फारेन पॉलिसी में देखने को मिलता है. इसमें जिन सौ चिन्तक लोगों का नाम दर्शाया गया है वह लोग दुनिया को अभिव्यक्त करते हैं. इसमें आंग सांग सू ची को पहला स्थान पत्रिका ने दिया  है. हम सभी जानते हैं कि सू ची एक ऐसी महिला हैं जो लोकतंत्र के लिए वर्मा (म्यांमार) में वर्षों से जेल में रहीं और उन्होंने कभी भी अपने मूल्यों से समझौता नहीं किया. छठें स्थान पर मलाला को जगह दी गयी है और दुनिया के सबसे ताकतवर बराक ओबामा उसके बाद इस पत्रिका में स्थान पाए हैं. मलाला वह लड़की है जो महिलाओं के शिक्षा के लिए उन कट्टर लोगों से जंग की और उसके लिए उसे अपने जीवन और मौत के बीच भी संघर्ष करना पड़ा.
दरअसल, इन चिंतकों में अपने-अपने अनुसार लोकतंत्र, सामाजिक न्याय, मनुष्य की गरिमा, उनके आर्थिक समृद्धता, सामाजिक समरसता और सद्भावना की कोशिश करने वालों को स्थान मिला है. उन्हें स्थान मिला है जो समय को प्रभावित करने वालों में सुमार किये जा रहे हैं. और यह कहना गलत न होगा की इन सभी ने अक तरह से मूल्यों को स्थापित किया है. मूल्यों के साथ जीवन जीना, जीवन के साथ मूल्य को सतत बनाए रखना बहुत आसान नहीं है. और यह कम लोगों में माद्दा होता है की वह अपने जीवन में भौतिकवादी सोच और सुख से मुक्ति लेकर दूसरों के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने के लिए तत्पर हों. सू ची, थिएन सीइन, मोंकेफ़ मर्ज़ुकी, बिल क्लिंटन, हिलेरी क्लिंटन, सेबास्तिएन थरुन, बिल गेट्स, मिलिंडा गेट्स, मलाला यौसफ्जई, बराक ओबामा, पॉल रयान, चेन गंग्चेंग, डेविड ब्लान्केनहॉर्न, नारायण कोचेर्लाकोटा और  रिचर्ड अ मूलर ये कुछ ऐसे लोग हैं जिन्हें पत्रिका ने प्रथम दस शीर्ष चिंतकों में शामिल किया है. हो सकता है की यह आम सहमति का मुद्दा नहीं हो और पत्रिका की राय मानी जाय लेकिन सू ची और मलाला के नाम पर कोई संदेह किसी को नहीं हो सकता. एक दिलचस्प बात यह है की भारत के बिहार प्रांत के मुख्य मंत्री नितीश कुमार को सत्रहवें और रघुराम राजन को अस्सीवें स्थान पर सामाजिक उन्नति के सन्दर्भ में याद किया गया है. सोच का अभिविन्यास कुछ भी बने लेकिन अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका फारेन पॉलिसी का यह सौ लोगों का दुनिया अपने अनुसार संपादित करने और कुछ कर गुजरने वाले लोगों का सम्मान है. यह एक तरह से उनके सौन्दर्य का प्रकाशन है. प्रायः अपने तक लोगों की बनती सोच, लूट कर धनी बन जाने की प्रवृति रखने वाले लोगों के लिए सीख है.


आम आदमी की लोकतंत्र से बढ़ती निराशा?
          डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
किसी भी राष्ट्र का लोकतंत्र उसकी गरिमा को न सिर्फ अभिव्यक्त करता है बल्कि उसकी संप्रभुता को सुदृढ़ भी बनाता है. भारत में इस बात की काफी नजीर दी जाती रही है कि हमारे देश का लोकतंत्र अन्य पड़ोसी देशों की अपेक्षा टिकाऊ है. यह बात शत-प्रतिशत सच हो भले लेकिन जिस प्रकार हमारे भ्रम टूटते जा रहे हैं पिछले कुछेक वर्षों में, इससे इस बात का एहसास होता है कि हमारी भी स्थिति अब ठीक नहीं है. एशिया के बहुत से ऐसे देश हैं जो इस त्रासदी से गुजर रहे हैं. अभी पिछले दिनों मानवाधिकार दिवस पर संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने कहा कि मोटे तौर पर विश्व के अनेक हिस्सों में हमने लोकतांत्रिक प्रशासन में हासिल सफलताओं के लिए चिंताजनक खतरे देखे. कुछ देशों में सामाजिक समूह बढ़ते दबाव और पाबंदियों का सामना करते हैं. सामाजिक संगठनों को विशेष रूप से निशाना बनाकर क़ानून बनाए गए हैं. जिससे उनके लिए काम कर पाना असंभव हो गया है. लोकतंत्र का सामना नए टकराववादी उपायों से हो रहा है. हम सबको बिपथगामी प्रवृत्ति पर चिंतित होना चाहिए. बान की मून की यह एक तरह से आम आदमी की चिंता है. भारत में उभरता नक्सल और अन्य सरकार की नज़र में उसके मुताबिक़ काम न करने वाले लोगों के खिलाफ ऐसे क़ानून आहिस्ता-आहिस्ता चलन में आ जायेंगे. बान की मून की तरफ से की जा रही चिंता का आखिर कोई न कोई कारण है.
यहाँ मैं तीन दलीलों को एक-एक करके देख रहा हूँ. पहला, पिछले कई महीने अन्ना हजारे और अरविन्द केजरीवाल के आन्दोलन चले. इसमें आम आदमी सरीक हुआ. उसके मन मस्तिष्क में केवल एक भावना थी कि हमें भ्रष्टाचार से मुक्ति दिला दो. लेकिन उसके मांग के जो तरीके थे वह सरकार के भ्रष्टाचार मुक्ति के तरीकों से मेल नहीं खाते. सरकार अपने ढंग का भ्रष्टाचार मुक्ति क़ानून लाने के लिए प्रतिबद्ध है. आम आदमी का लोकतंत्र कुछ और है और सरकार के लोकतंत्र की परिभाषा उसकी स्थायित्व से जुड़ी है. यह जो एक-दूसरे के बीच खाइयां हैं उसे न ही सरकार पाट पा रही है न आम आदमी अब यह समझ पा रहा है कि उसकी सीमाएं कहाँ पर ख़त्म हो जाती हैं.
दूसरा, एफ.डी.आई को लेकर कुछ रोष हुआ. आम लोगों को इसमें मुक्ति के लिए शामिल किया गया और आवाज़ उठाने की बात हुई. उसके भी सामने अलग-अलग पार्टियों के लोगों ने अपने हथियार डाल दिए. आम आदमी जहाँ का तहां केवल तमाशबीन बनकर देखता रह गया. उसे न ही माया का साथ मिला न ही मुलायम सिंह यादव का कोई न्याय. अपने-अपने लोकतंत्र गढ़ने की यह कोशिश थी और किस तरह आम लोगों के खुशियों से दो-चार हो कर उनसे दूर निकल गयी इसका लोगों को भान भी न हो सका.
तीसरा, जो आजकल दिल्ली समेत भारत भर में हो रहा है. बलात्कार के सम्बन्ध में आन्दोलन हो रहा है. उसे सुनकर तो यही समझ में आता है कि भारत की जनता खासकर बेटियाँ कितनी असुरक्षित हैं. इस बलात्कार पर भी आन्दोलन हो रहा है यह ठीक है. यह रूह से निकल कर लोगों की निकली आवाज़ है. लेकिन आन्दोलन को सही न्याय देने की जगह जो बहस फांसी पर अटक रही है वह न ही बलात्कारियों को कोई सजा दिला सकेगी और न ही कोई पीड़ित को न्याय.
इस देश में बहस बहुत ज्यादा होती है. बहस से आप क्या जताना चाहते हैं? यही कि आप कितने तरह से विचार कर सकते हैं? कितने तरह से बचाव कर सकते हैं? कितने तरह से अपने गुबार को जनता के सामने लाने में आप प्रवीण हैं? शायद यह आपकी बहस किसी पीड़ित के घाव को कभी भर नहीं सकेगी, इसका आपको एहसास नहीं है. शायद इन बहसबीनों को यह पता नहीं है कि आप आम आदमी के निराशा को बढ़ाने के सिवा और कुछ भी नहीं कर रहे हैं? यह आम आदमी आज के लोकतंत्र से निराश है तो इसके लिए यह आपकी बहस कहीं न कहीं जिम्मेदार है.
असली इसकी लड़ाई यही है कि क़ानून इतने शख्त हों कि कोई ऐसी घृणित कोशिश करने के लिए दस बार सोचे. बजाय इस बात की चिंता करने की कि उसे फांसी दी जानी चाहिए या नहीं इस बात की चिंता ज्यादा होनी चाहिए की इस समस्या से मुक्ति के उपाय क्या हैं? लोकतंत्र में और लोकतांत्रिक देश भारत में रह रहा आदमी इस बात से हमेशा बेफिक्र होना चाहिए कि उसकी सुरक्षा कभी खतरे में है. उसकी सुरक्षा का जिम्मा तो राज्य की जिम्मेदारी है. लेकिन विडम्बना यही है कि वह अपनी औपचारिकताएं पूरी करता है. भारत के पूर्व मुख्य न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) श्री जे.एस. वर्मा की अध्यक्षता में एक समिति गृह मंत्रालय ने बनायी है. इस वर्मा समिति की अपेक्षा है कि आम आदमी अपना सुझाव दे और देश को एक क़ानून उस सुझाव के मुताबिक़ हम देंगे लेकिन क्या यह पर्याप्त है? अब यह सुझाव पांच जनवरी तक आयेंगे फिर बहस होगी और संस्तुति की जायेगी. इसके परिणाम क्या होंगे इसका मालिक खुदा है. फिलहाल संयुक्त राष्ट्र के महासचिव और देश के गृह मंत्रालय ने अपनी अपनी पूरी चिंता आम आदमी के सामने रख दी है अब न्याय मिले तो सरकार की और अपराध हुए तो भी वे जागरूक हैं.
फिलहाल, सरकार जो कर रही है उसे तो करने देना चाहिए लेकिन अपने ही समाज के अनैतिक साहस क्या इन साड़ी समस्याओं की जड़ नहीं लगते. शायद सामूहिक नैतिक भावना और मूल्यों के साथ संयम इन मुशीबतों से मुक्ति दिला सकते हैं लेकिन यदि समाज खुद जागरूक हो तभी यह संभव है.
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पता: डॉ. कन्हैया त्रिपाठी, (पूर्व राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील के सम्पादक), सहायक प्रोफ़ेसर, अकादमिक स्टाफ कालेज, डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 (मध्य प्रदेश), Mo: 08989154081, email: kanhaiyatripathi@yahoo.co.in, hundswaraj2009@gmail.com