Thursday 7 February 2013


  आध्यात्मिक मीडिया का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण : श्रीमद्भागवतगीता
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
मीडिया विमर्श की जब हम बात करते हैं तो हमारे समक्ष ऐसे कई माध्यमों की छवि प्रकट होती है. इसमें हम प्रकृति को मीडिया नहीं मानते. इसमें हम किसी पराशक्ति को भी हम मीडिया नहीं मानते. अब भी यही माना जा रहा है कि पहले जब मनुष्य अपने चेतन अवस्था में आया होगा तो उसने मीडिया को किन अर्थों में लिया होगा इसकी कल्पना मात्र लोग कर सकते हैं उसका सही स्वरुप नहीं व्यक्त कर सकते. हाँ, यह ज़रूर कहा जा सकता है कि निरंतर चेतना के विकसित होने की प्रक्रिया में मनुष्य अपने आध्यात्मिकता को मीडिया मानता होगा. वह पेड़-पौधों, गुफाओं, कंदराओं और जंगलों में प्रकृति से जरूर संवाद स्थापित करता होगा. लिपि के विकास से पहले यह कहा जाता है कि ध्वनि उच्चारित हुई होगी. और शायद, विकास की प्रक्रिया में यही ध्वनि उसकी आध्यात्मिकता की ताकत भी बनी हो और मनुष्य का प्रकृति से संवाद के साथ ईश्वर जैसी अवधारणा से संवाद हुआ हो. फिलहाल, यह केवल कल्पना मात्र है लेकिन आज मीडिया का सशक्त स्तम्भ के रूप में पूरे विश्व में प्रतिनिधित्व है यह एक बड़ा सच है. यहाँ तक कि अब जो क्रान्ति के सार्थत्व का जिम्मा है वह मीडिया के माध्यम से संभव है और गीता को पढ़ने वाले इसे श्रीकृष्ण के रूप में देख रहे हैं. यह बात अलग है कि इस श्रीकृष्ण पर पूर्ण भरोसा अभी तलक बन नहीं सका है. जो भी हो, इस श्रीकृष्ण का भले ही पूर्ण भरोसा न बन पाया हो लेकिन श्रीकृष्ण द्वारा स्वयं उदघोषित गीता को आध्यात्मिक जगत के लोग और मनुष्यता में विश्वास करने वाले लोग आशा भरी निगाह से देख रहे हैं.
  वस्तुतः, पवित्र गीता अद्भुत रसास्वादन और अनुभूति की महान पुस्तक है. पुस्तक का अर्थ है माध्यम का एक मॉडल. पुस्तक को मीडिया विशेषज्ञ प्रिंट मीडिया के रूप में परिभाषित करते हैं. आज सूक्ष्म और स्थूल का विश्लेषण करने के लिए पूरे विश्व के लोग बिना गीता के अध्ययन, मनन, चिंतन और आत्मसातीकरण के अपने विश्लेषण, ज्ञान और विज्ञान को विल्कुल अधूरा मानते हैं. ईश्वर द्वारा स्वयं ध्वनित सूत्र जिससे जीवन और जगत का ज्ञान संभव हो जाता है इससे भला कोई बिना परिचित हुए कैसे रह सकता है.
गीता से पूरी तरह परिचित हो पाना बहुत ही कठिन यत्न है. यह पूरे मनोयोग और साधना के भी बाद इतने विकल्पों, मार्गों, और संभावनाओं को प्रकट करती है और मनुष्य को यह महसूस कराती है कि अभी भी हम गीता को एक बार पुनः पढ़ लें तो शायद कुछ और नया सूत्र मिल जाए. इसीलिए इसके टीकाकार इसके अध्ययन के पश्चात जितनी बार व्याख्या, विश्लेषण या टीका करने का प्रयास किये उन सबके मत अलग-अलग हमें मिलते हैं. यद्यपि सभी विद्वानों के अनुसार इस पूरे गीता में वही अट्ठारह अध्याय हैं जिसमें श्रीकृष्ण ने अर्जुन को उन उपदेशों से अभिसींचित किया है जिसके अभाव में अर्जुन अपने कर्त्तव्य से विमुख हो रहे थे. धर्मच्युत हो रहे थे.
मीडिया के यदि सामान्य दायित्व पर हम बात करें, तो उसका कार्य है समाज का तटस्थ होकर मार्ग-प्रशस्त करना और किसी भी अतिक्रमण के खिलाफ आवाज़ बुलंद करना है. इस कर्त्तव्य को गीता में कर्मयोग की संज्ञा दी गयी है क्योंकि यदि मीडिया ऐसा करे तो यह उसका कर्त्तव्यबोध है. मीडिया का यह भी कर्त्तव्य है कि वह समदृष्टिगत विचार रखे, समभाव और सम्यक आदर्श को प्रस्तुत करे. गीता की जब भी रचना हुई उसमें इन सबकी ओर गंभीर ध्यान था या नहीं लेकिन इस बात पर जोर था की मनुष्य का मूल्यबोध, कर्त्तव्यबोध और निर्णय लेने की क्षमता की निर्मिति हो सके.
महात्मा गाँधी ने यंग इंडिया में सन 1925 में लिखा, ‘यह प्रसिद्ध गीताशास्त्र सम्पूर्ण वैदिक शिक्षाओं के तत्वार्थ का सार-संग्रह है. इसकी शिक्षाओं का ज्ञान सब मानवीय महत्त्वाकांक्षाओं की सिद्धि कराने वाला है. (द्रष्टव्य: भगवद्गीता/ डॉ. सर्वपल्ली राधा कृष्णन/हिंदी पाकेट बुक्स, नई दिल्ली-२/२००४ पृष्ठ १२)’. इस बात की पुष्टि भगवदगीता पर शंकराचार्य द्वारा की गयी टीका में है. शंकराचार्य ने लिखा है-‘समस्तवेदार्थसारसंग्रहभूतम् समस्तपुरुषार्थसिद्धिम’ जो कि गीता के बारे में ही लिखा गया है.
इस प्रकार गीता के तात्त्विक स्वरुप को हम बहुत ही गंभीरता से देखते हुए यह कह सकते हैं कि गीता एक सभ्यता का उदघोष है जिसमें व्यापक शान्ति, सत्य और तात्विक समाज का बीजारोपण है. एक ऐसे तत्त्व का बीजारोपण जिसमें मनुष्य के उत्थान एवं उत्कर्ष की संकल्पना है. सच्चे अर्थों में अगर हम बात करें तो यह एक प्रकार की मूल्यानुगत मनुष्य-समाज के स्थापना का प्रयास गीता द्वारा किया गया है. मूल्यानुगत मनुष्य-समाज का निर्माण मनुष्य के कर्मबोध की पराकाष्ठा द्वारा ही संभव होता है. गीता में उस संभावना का अद्भुत संकल्प है.
 अब संकट इस बात का है कि गीता को हम मीडिया विमर्श के साथ कैसे पढ़ें या उसको कैसे समझें? गीता को हम एक स्थापित मीडिया के रूप में कैसे मान सकते हैं? यद्यपि यह आध्यात्मिक पुस्तक है जो ईश्वर को सर्वव्यापी, संप्रभु, सर्वोत्तम और सब कुछ मानने पर विवश करती है. ऐसे में एक प्रश्न यह भी है कि उन अनीश्वरवादियों का क्या होगा जो किसी भी सत्ता को मानने से इनकार करते हैं.....मीडिया के इन प्रश्नों का भी उत्तर गीता में उपलब्ध है. शिक्षाओं के तत्वार्थ का सार-संग्रह, इसका तात्पर्य ही हुआ कि इसमें वे उत्तर भी समादृत हैं जो हमारे मन को कौंध रहे हैं या अनुत्तरित हैं.
मीडिया और मीडिया के विविध स्वरूपों में आज जिस प्रकार की होड़ मची हुई है वह किसी से छुपा नहीं है. मीडिया के वाह्य और आतंरिक सौन्दर्य को इसके लिए हमें अलग-अलग करके विश्लेषण करना पड़ेगा. आतंरिक में भी सूक्ष्म का सौन्दर्य की जिज्ञासा ही हमको गीता के मूल संवेदना से परिचित करा सकती है. उसको अगर हम बहुत ही साधारण तरीके से देखने का प्रयास करेंगे तो भी गीता के मीडिया-स्वरुप और संवेदना से वंचित रह जायेंगे. यह इसलिए भी क्योंकि गीता कोई सामान्य पुस्तक नहीं है वह ब्रह्म का ही एक रूप है. जयराम वी ने एक गीता पर अपना सार प्रस्तुत करते हुए लिखा है-According to the Bhagvadgita a man should not renounce action or avoid his obligatory duty. He Should engaging himself in action, but with a sense of detachment, with a steady mind and with self-discipline, casting away egoism and all other negative qualities, without any desire for the fruits of his actions, with sense of sacrifice, completely surrendering to the God and fully devoted to him, offering the fruit of his actions to Him and partaking the remains of the nectar in the form of sacrifice.”(http://www.hinduwebsite.com/gitaindex.asp ). इसलिए गीता से जुड़े मीडिया प्रश्नों का संरचनात्मक विवेचना मीडिया में हो रहे बहस के साथ जब जोड़कर हम करेंगे तो एक-एक सूत्र खुलते नज़र आयेंगे. और यह बिना गीता के दर्शन और मीडिया के दर्शन को साथ-साथ देखे संभव नहीं है.
मीडिया का दर्शन सत्य से अलग नहीं है. उसी प्रकार गीता का दर्शन सत्य की स्थापना है. गीता इसी सत्य के सौन्दर्य को मनुष्य मात्र के सौन्दर्य से जोड़कर देखने वाली ज्ञान की कुंजी है. अब समस्या यहाँ यह आती है कि गीता को भी आलोचक एक इतिहास का आख्यान मान बैठते हैं प्रायः यह दलील दी जाती है और सचाई भी है कि इतिहास समस्याओं के पिटारे हैं. इसलिए आज के मीडिया विमर्श में जब हम इतिहास के रूप में गीता नहीं लें तो गीता एक ज्ञान-मीमांशा की नवोन्मेषी पद्धति निर्मित करने वाली पुस्तक के रूप में अनुभूत होगी जिसमें सत्य और धर्म के पाठ हैं. इस तरह गीता का संवाद मनुष्यता के दीर्घवर्ती भविष्य का शुभ संकेत प्रतीत होगा. मीडिया इसी दीर्घकारी मनुष्य समाज के बने रहने या अस्तित्व कायम रहने के कोशिश में है इस प्रकार हम हम पायेंगे कि मीडिया और गीता दोनों किसी स्तर पर एक ही उद्देश्य के लिए सतत प्रयास करते हुए मिलेंगे.
ऑक्सफ़ोर्ड बिब्लियोग्राफी में उद्धृत है- The Bhagavad Gita is one of the supreme works of Sanskrit and indeed of all world literature. लेकिन संस्कृत के इस महान साहित्य को मीडिया की गहराइयों और उसके अनुशासन को व्यक्ति-मनुष्य के निजी जीवन के रूप में गीता ने प्रकट किया है इसलिए इसकी प्रासंगिकता काफी समय से ढूढी जा रही है. फिलहाल, मैं गीता के सार्थक शब्दों को लोककल्याण के रूप में पाता हूँ जिसकी खोज में मीडिया नित्य प्रयासरत है. मैं इसे निहायत धार्मिक पुस्तक के रूप में देखने वालों से क्षमा माँगते हुए यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि यह एक सारगर्भित जीवन-जगत के अंतर को स्पष्ट करने वाली पुस्तक तो है ही साथ ही नैतिक और मूल्यगत मीडिया है जिसका प्रभाव सतत समाज निर्माण में हमेशा बने रहने वाला है. मीडिया के इस मूल्यगत अभिव्यक्ति को पृथक-पृथक तरीके से देखने की ज़रुरत है. आध्यात्मिक मीडिया के तात्विक विश्लेषण के बाद गीता के मीडिया फिलॉस्फिकल अप्रोच को हम समझ सकेंगे जो कि लम्बे विमर्श का हिस्सा है जैसे मनुष्य को मिथ और सत्य से रू-ब-रू होने के बाद उसके भ्रम दूर होते हैं उस प्रकार गीता कैसे एक आध्यात्मिक मीडिया है इसकी अनुभूति हम कर सकेंगे.
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