Thursday 24 March 2011

डॉ. लोहिया की राह भूलते लोग

लेहिया  के जन्म दिवस (23 मार्च) पर विशेष
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी



आज जब सम्पूर्ण विश्व में अस्त्र-शस्त्र की होड़ मच गयी हो और अपने देश भारत वर्ष में जाति और सम्प्रदाय में विभाजन शिखर पर हो तो कैसे न हमें याद आएंगे डा. राममनोहर लोहिया ? कैसे हमें सप्तक्रांति के जनक का ध्यान न आएं। क्योंकि आज की परिस्थितियों में हमारा जीवन विभिन्न त्रासदियों का सामना करने पर मजबूर होता जा रहा है। नि:संदेह डा. लोहिया का व्यक्तित्व और कृतित्तव हमें ऐसे त्रासदियों व मुक्ति दिलाने के लिए सतत प्रयत्नशील रहा है कभी विचारों के माध्यम से तो कभी व्यवहारों अर्थात क्रांति और आन्दोलनों के माध्यम से।
डा. लोहिया का जन्म सन् 1910 में 23 मार्च को अकबरपुर, फैज़ाबाद (अब अम्बेडकर नगर-जनपद), उत्तार-प्रदेश में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री हीरालाल लोहिया, माता का नाम चन्दा था। सन् 1918 में पिताश्री हीरालालजी अहमदाबाद गये तो लोहिया भी साथ में गये वहीं कांग्रेस अधिवेशन के दौरान गांधीजी का प्रथम दर्शन हुआ, उस समय वह मात्र आठ वर्ष के थे। उच्चशिक्षा के लिए वे 1929 में छ: माह इंग्लैण्ड में बिताकर शोध हेतु जर्मनी में रहे। उन्हें 1932 में हुम्बोल्ड विश्वविद्यालय, बर्लिन, (जर्मनी) से पी-एच.डी. की उपाधि (अर्थशास्त्र में) प्राप्त हुई। कहते हैं उनका प्रतिरोधी स्वर वहीं से बुलन्द हुआ। 23 अप्रैल 1942 में सेवाग्राम में गांधीजी से पुन: उनकी वार्ता हुई। 8 अगस्त को वे 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में सम्मिलित हुए। 9 अगस्त को भूमिगत हुए और अगस्त में ही भूमिगत रहते हुए उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 'जंग जू आगे बढ़ो' का प्रकाशन कराया। सितम्बर में उनकी दूसरी पुस्तक 'मैं आज़ाद हूँ'  तथा नवम्बर में तीसरी 'करो या मरो' पुस्तक का प्रकाशन हुआ। 
 वह ईरादों और अपने वसूलों के पक्के थे। इसकी एक मिसाल, 1953 प्रजा सोसलिस्ट पार्टी के पांच आधारभूत सिध्दांतों की घोषणा की गयी उनका विचार स्पष्ट रूप से मुखरित हुआ कि कांग्रेस के साथ मंत्रिमंण्डल में शामिल नहीं होना चाहिए। वह सत्ता के खिलाफ रहे। 1954 में नहर रेट आन्दोलन लोहिया द्वारा चलाया गया जिसमें उन्हें 1500 कार्यकर्ताओं के साथ जेल यात्रा करनी पड़ी। इतना ही नहीं निहत्थे मजदूरों पर गोलियां चलाने वाली केरल सरकार से उन्होंने इस्तीफा मांगा जिससे अन्य नेताओं ने उनके प्रति पुरानी आत्मीयता को घटा दिया किन्तु उन पर कोई असर नहीं हुआ। सन् 1956 का लगभग एक लाख कार्यकर्ताओं के जुलूस जो हुआ था डा. लोहिया के नेतृत्व में, वह आज भी प्रसिध्द है। जाति-प्रथा के विरोधी डा. लोहिया ने हरिजन को मंदिर में प्रवेश कराया जिसमें उनकी गिरफ्तारी हुई। हाँ, 1956 डा. लोहिया के लिए महत्तवपूर्ण वर्ष था क्योंकि 'मैनकाइण्ड' का प्रकाशन उन्होंने इसी वर्ष किया था। 1957 में डा. लोहिया वाराणसी क्षेत्र के चकिया चन्दौली लोकसभा के लिए चुनाव लडे क़िन्तु परिणाम संतोषजनक नहीं रहा। लेकिन अपनी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक विकास की जो लड़ायी थी उसे उन्होंने जारी रखा। सिविल नाफरमानी करते हुए वे इस साल भी पांच हजार लोगों के साथ जेल गये।
1962 में, डा. लोहिया पं. जवहारलाल नेहरू के खिलाफ लोकसभा का चुनाव लडे फ़ूलपुर लोकसभा क्षेत्र से किन्तु संयोगवस उन्हें सफलता नहीं मिली। 1962 में 'अंग्रेजी हटाओ सम्मेलन' हैदराबाद में उन्होंने आयोजित किया और देश जब चीनी युध्द के दौर से गुजरने लगा तो डा. लोहिया ने सरकार के दायित्तव पर समाज का अंकुश लगाने पर जोर दिया। सन् 1963 में फर्रूखाबाद संसदीय क्षेत्र से उपचुनाव हुआ तो ऐतिहासिक जीत डेढ़ लाख मत प्राप्त कर की और ससंद पहुंचे। संसद सत्र में वे आज के कुछेक मूकबधिर सांसदों में से स्वयं को नहीं गिनाये और न ही बाहुबलीरूप में। 23 अगस्त को 'तीन आना बनाम बारह आना' शीर्षक से ऐतिहासिक महत्तव के उनके भाषण की चर्चा आज भी होती है। 12 अगस्त, 1967 को संसद में उनका अंतिम भाषण हुआ। 20 अगस्त, 1967 में उन्हें बिलिंगटन हास्पीटल में ग्रंथि आपरेशन के लिए भर्ती कराया गया जहाँ वे जेल में बंद कैदी से बड़ा कैदी बन जाने जैसा महसूस किए। 12 अक्टूबर, 1967 को गरीबों, दलितों, शोषितों, वंचितों के मशीहा का प्राणान्त हो गया।
सप्तक्रांति' में भी अन्याय के खिलाफ लड़ायी, अन्तरराष्ट्रीय गैर-बराबरी के विरुध्द संघर्ष, राष्ट्रीय गैर-बराबरी के विरुध्द संघर्ष, खर्च पर सीमा, गरीबी के खिलाफ क्रांति, जाति-प्रथा का अन्त विशेष अवसर देकर, और हर सम्भव बराबरी की प्राप्ति के लिए निरन्तर संघर्षरत रहना लोहिया की स्वाभावगत लड़ाई थी। यह कोई बनावटी लड़ायी नहीं थी।
          सचमुच आज डा. लोहिया और उनकी सप्तक्रांति एक बार पुन: सबकी दृष्टिकोण व सबकी सोच में प्रासंगिकता बनाने में सफल हुई है क्योंकि उन्होंने समाजवादी होते हुए भी किताबी समाजवाद का अनुकरण नहीं किया। उन्होंने क्रांति का आह्वान करते हुए भी क्रांति के केवल एक नारा नहीं बनने दिया। पूर्व राष्ट्रपति डा. नीलम संजीव रेड्डी ने उन्हें 'सामाजिक, आर्थिक समस्याओं के प्रति जागरूक' कहा तो वहीं पूर्व प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने 'महान योध्दा, क्रांतिदर्शी, पददलितों और शोषितों के मसीहा बताया। सोसलिस्ट पार्टी के नेता मधुलिमये ने उन्हें 'महात्मा गांधी का सच्चा उत्ताराधिकारी' माना।
आज लोहियावादी लोग लोहिया के मूल संदेश को भूल रहे हैं, यह ठीक नहीं है। लोहिया का संवाद अगर जनता से था तो उनके उत्ताराधिकारियों को चाहिए कि वह लोहिया के लोगों का पूरा ख्याल रखें। यदि यह नहीं हो पाता तो इसमें कोई दो मत नहीं कि उन्हें लोहियावादी कहलाने से बचना चाहिए। लोहिया के कर्म और कर्म जैसा धर्म उनका अपने जीवन में दिखा और लोहिया के मानने वाले लोगों का भटकाव अब दिख रहा है, यह लोहिया के प्रति लोगों का एक प्रकार का धोखा है। न जाने कब वह दिन आएंगे जब लोहिया का अपना भारत उनके सपनों सा अस्तित्व पा सकेगा।

पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
Residential Address: Maheshpur, Azamgarh-276137(UP). Mo. 09765083470

Tuesday 22 March 2011

चरखा जो कभी अस्मिता का प्रतीक था!

कन्हैया त्रिपाठी -
मनुष्य बिरादरी का अन्तिम लक्ष्य क्या है, इसकी अगर पड़ताल की जाए तो यह पता चलता है कि मनुष्य अन्तत: आनन्द की प्राप्ति चाहता है। सुख उसका प्रथम लक्ष्य है। आजादी से पूर्व और अब भूमण्डलीकरण के युग में भी अगर विभिन्न परिस्थितियों से मनुष्य संघर्ष कर रहा है तो उसके संघर्ष का अंतिम उपक्रम उसके सुख पर जाकर सिमट जाता है। यह बात अलग है कि इसमें से कुछ सार्थक जीवन जीते हुए अपने समाज और दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं। जो दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं उनकी दूरदर्शिता उन्हें इस काबिल बनाती है। वस्तुत: वह अपने साधन और साध्य में फर्क करके अपनी योजनाओं को मूर्तरूप देते हैं, इसलिए समाज हित में कुछ रचनात्मक कर गुजरते हैं।
गांधीजी ने सन् 1909 में एक छोटी सी किताब लिखी थी-हिन्द स्वराज। उसमें साधन और साध्य का मूलमंत्र उन्होंने दिया था। उस पुस्तक में गांधीजी ने ऐसी सभ्यता का विरोध किया था जो मनुष्य के 'स्व' का सर्वनाश करती हो। इसके बदले वह एक 'अहिंसक सभ्यता' ईज़ाद करते हैं जिसके माध्यम से मनुष्य छोटे व लघु उद्योग-धन्धों को अपनाकर स्वावलम्बी बन सके।
हम देखेंगे कि उन दिनों सशक्त विकल्प के रूप में 'चरखा' और 'खादी' अपनाने पर गांधीजी ने बल दिया। उनकी खादी के जरिए स्वदेशी सभ्यता की अनुगूंज थी, और उनका मानना था कि यह गरीबों का सहारा है, दुखियों का बन्धु है और अन्धे की लाठी है।
चूँकि गांधीजी यह जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है इसलिए भी वह चरखें के सहारे गांव को खुशहाल बनाने का स्वप्न देखते थे। उनका मानना था कि बड़े उद्योग किसी भी तरह भारतीय ग्रामीण सभ्यता के लिए लाभप्रद नहीं हैं और इससे ग्रामीणों का पलायन भी सम्भव है। इससे निजात के लिए उन्होंने चरखे की ओर भारतीय मानस का ध्यान खींचा। वास्तव में, जिस भारत के करोड़ों लोगों के दो जून के भोजन की जरूरत हो उसकी भरपायी भले बड़ी मशीने कर दें लेकिन वह कभी उन्हें सम्मान भी उसी एवज में दे पाएंगी, यह असम्भव था।
चालीस और पचास के दशक में चरखा लोगों के जीवन के उत्कर्ष के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। चरखे से लोग आत्मानुशासन, धैर्य और स्वावलम्बन तो प्राप्त किए साथ ही भारत के लोग गुलामी से मुक्त हुए।
चरखे के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि यह आध्यात्म से जोड़ता है। इससे मनुष्य एकग्र होता है लेकिन इसके साथ यह चीजें भी गहरे चिंतन के बाद समझ में आती हैं कि यह थाली की रोटी को सृजित करता है। थाली की रोटी का मतलब, मनुष्य के छुधा का भंजक भी यह है। मनुष्य के आत्मिक संतुष्टि का विकल्प चरखा इन अर्थों में ईश्वर का साक्षात दर्शन बनकर हमारे सामने प्रकट होता है। इस प्रकार चरखा आध्यात्म है तो जीवनचर्या का संबल भी।
आज नई तकनीकें, प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान ने मनुष्य को इस योग्य बना दिया है कि उसकी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। लेकिन यह सम्पूर्ण आबादी का चित्र नहीं है। अभी भी हमारे देश की बहुतायत जनसंख्या गांवों में रहती है, उसके दो जून का निवाला अभी भी चरखा जैसे औजार दे सकते हैं जो कम लागत और कम परिश्रम से सुलभ हों। हमें विस्थापित न करें और हमें अपनों से दूर न करें। इसका विकल्प अब भी चरखा हो सकता है।
यह अच्छी बात है कि चरखा अब नए परिस्कृत रूप में हमारे सामने है। उसके नए संस्करण ने जमाने के हिसाब से सुगम तरीके से कताई की क्षमता प्राप्त कर ली है। इसलिए यह चरखा अब तो और हमारी गरीबी काट रही जनता का हमदर्द साबित हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसको कितनी तत्परता के साथ अपनाते हैं। गांधी ने अपनी पुस्तक में ऐसे ही उपक्रम को धारण करने की सीख दी है जिससे हमारी अपनी आत्म की छति न हो। अपने स्व को हम न खत्म कर दें। इसीलिए वह सच्चे साधन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता की बलिहारी, की वह अपने से विरक्त होने नहीं देती। वह अपने उन संजाल में फंसा रही है हम मनुष्यों को, जिनसे अगर हम उबर न सके तो हमारी अपनी आजादी छिन जाएगी। सन् 2007 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग के स्वर्ण जयन्ती समारोह में भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने कहा था खादी हमारे अन्त:करण की भावनाओं का हिस्सा, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी और ग्रामोद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का माध्यम है और इसमें रोजगार की विपुल सम्भावनाएं हैं। इन सम्भावनाओं को कौन तलाश रहा है? हमारे देश के लोग अपनी सम्भावनाएं ग्लैमर में ढूढ रहे हैं। विदेशों में तो लोग खादी पहनते हैं और चरखे की ओर भी उनका सकारात्मक रुझान है लेकिन भारत अपनी मूल चेतना से भटक रहा है, यह चिंतनीय है।
हम चरखे से अलग नहीं हो रहे हैं। बल्कि इसपर से यह समझ में आता है कि हमारी संकीर्णताओं और जरूरतों ने हमारे अपने से अलग कर रखा हैं। सम्बन्धों के साथ आज रोना है और अपने कुटीर उद्योगों के साथ यही रोना है कि ये हमारे विकास में सहयोगी नहीं हैं। यद्यपि यह एक मिथ है। इस मिथ से जब तक हम मुक्त नहीं होते तब तक हम चाहकर भी जुड़ नहीं सकते। यह हमारी कमजोरी है। अपनी आजादी के मुख्य अस्त्र आज विल्कुल हमारे लिए किसी काम के न रहे यह कहना हमारी भूल है। हमारे देश में आठ हजार दूकानों से खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग अपने माल तैयार कर रहा है और विपणन भी कर रहा है लेकिन यह हमारे लिए विल्कुल हास्यास्पद है कि भारत की 90 प्रतिशत जनता इससे विरत होना चाहती है। कमीशन के साथ जुड़े लोगों के बारे में भी ऐसी राय है कि यह वे लोग हैं जिनकी इस बहाने कोई अन्य दूकाने चलती हैं। इस प्रकार खादी और चरखे के साथ यह दशा होगी, किसी ने सोचा नहीं था। आज जब हम नए विश्व बाजार का सामना कर रहे हैं तो क्या अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर अपने चरखे से रूबरू हों, यह यक्ष प्रश्न है।

 पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
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पानी के लिए शोर


डॉ. कन्हैया त्रिपाठी -
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने जल दिवस के एक संदेश में कहा है कि विश्व को पानी के लिए संघर्ष करने का यह चुनौतीपूर्ण समय है। जल के बिना न तो हमारी प्रतिष्ठा बनती है और न ही गरीबी से हम छुटकारा पा सकते हैं। फिर भी शुध्द पानी तक पहुँच और सैनिटेशन यानी साफ-सफाई सम्बन्धी सहस्राब्दि विकास लक्ष्य तक पहुँचने में बहुतेरे देश अभी पीछे हैं। बान की मून की यह विश्व व्यापी चिंता जरूर सोचने के लिए बाध्य करती है।
फिलहाल पानी बचाने की मुहिम भारत में तेज हो रही है। भारत में अब लगभग ण्क शोर हरेक राज्य से आने लगा है कि पानी को कैसे हम संरक्षित करें। शहरीकरण जब से बढ़ा है और झुग्गी-झोपड़ियां अपने संख्या को बढाने लगी हैं तो यह चिंता और बढ़ गयी है। पेयजल केवल चुंकि हमारा संकट नहीं है। इसे किसी तरह तो पूरा किया जाएगा लेकिन यह जो कचरे में ईजाफा हो रहा है वह जरूर हमारे सरकार के लिए और शहरी आबादी के लिए चिंताजनक है। विश्व में लगभग बारह करोड़ लोग ऐसे हैं जिनके पास सिंगल नल नहीं है। साफ-सफाई से वंचित लोग लगभग पचास लाख लोग हैं। अब सोचिए इनके भविष्य, जीवनचर्या का क्या होगा?
जल प्रबंधन की चुनौती झेलते हमारे शहर और शहरी आबादी को पानी के अभाव में थोक की बीमारियां जो मिलने वाली है वह अलग से। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकारों का उच्चायोग पानी को सबके मानवाधिकार के रूप में बताया है। विश्व में साढ़े छ: अरब की आबादी के मानवाधिकार के रूप् में चिन्हित पानी की दशा यह है  िकवह खुद सबके मानवाधिकार का हिस्सा नहीं बन सकता।
श्लोगन, नारे और प्रसंविदाएं इसीलिए हमारे जीवन का अंग नहीं बन पाती हैं क्योंकि हम जिस उत्सुकता और गर्मजोशी से इसे पास करते हैं उतने ही जागरूकता से लागू करने में हम पीछे हो जाते हैं। दुनिया के राज्य ऐसे में एक खोखले वादे और घोषणाओं के एक एलीमेंट के रूप में देखे जाने लगते हैं
भारत में खुद पानी को लेकर जो बहस है वह कागजों पर ज्यादा है। कुछेक राज्य अगर जागरूक होकर अपने मिशन में भी जुट गए हों तो लगभग सवा अरब वाले भारतीय आबादी का कल्याण कैसे हो सकेगा। जमुना का पानी और गंगा पानी अब पवित्र है तो उन सहज लोगों के बीच जो अभी गंगा मैया और यमुना माता के रूप् में उसे जानते हैं। वे इतने सहज हैं कि उन्हें यह नहीं पता है कि हमारी गंगा और यमुना को कितने कचरों से दूषित किया जा चुका है। दिल्ली के लोग जानते हैं यमुना केबारे में कुछ कानपुर के लोग गंगा के बारे में जानते हैं। वह लोग किसी मंगल पर्व पर स्नान नहीं करना चाहते। उनके हिसाब स ेअब गंबा न तो नहाने लायक रह गयी और नही पवित्र करने लायक।
भारत सरकार एक राज्य के रूप में पानी जैसे मानवाधिकार को कैसे आम मनुष्य का हिस्सा बना सकेगी, यह तो एक चुनौती है। यह चुनौती इसलिए है क्योंकि हमारी सरकार के पास न तो नीति है और न ही नौकरशाह जो संरक्षण के लिए नीतियां बनी हैं, उसे जल्दी से लागू करना चाहते हैं। इस प्रकार एक संजाल में फंसी हमारी जल नीति हमारे जीवन से जो जुड़ी है वह इस पाले, उस पाले खेल के तरह खेली जा रही है।
पारम्परिकरूप से जल संरक्षण की बात भारत में बहुत पुरानी है। लेकिन जब से पानी सर्व सुलभ हुआ और लोग अपने निजी जीवन में उपभेगवादी बनने लगे लोगों का रुझान अपनी पारंपरिकता से विल्कुल अलग हो गया है। किसान भी अब जिस तरह से पहले अपने खेत-खलिहान और पांपरिकता को जीता था उससे अलग हो गया। ऐसे में जल संरक्षण एक वास्तव में चुनौती का सबब बन चुका है। शहर सोच रहा है गांव जल बचाएंगे। गांव सोच रहा है कि शहर स ेजल बचाया जाएगा लेकिन शहर प्लास्टिक ऑव दी वाटर का शिकार हो गया है। गांवों के लिए निगमीकरण के खिलाड़ी आस लगाए बैठे हैं कि कभी ऐसा वक्त जरूर आएगा जब निजीकरण के नाम पर हमें गांव में पानी बेचने के लिए दे दिया जाएगा।
इस प्रकार पानी के लिए बर्चुअल शोर एक भयानक शोर में तब्दील होने जा रहा है। संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकारों के उच्चायोग और दुनिया के राज्य इस फिराक में हैं कि कनवेंशन पास करके हमज ल क्रांति ला देंगे तो यह कोरी कल्पना है। रियो-डि-जनेरियों में 2012 का सम्मेलन पानी को केन्द्र में रखकर किया जाना है। इसके लिए तैयारियां जोरो स ेचल रही है लेकिन पानी क्या वास्तव में बचाया जाएगा, यह कहना मुश्किल है। यूएन. वाटर पैनल जहां टिकाऊ जल प्रविधि के लिए कार्य कर रहा है वहीं भारत सरकार के पास ऐसी एक भी टिकाऊ जल नीति के लिए कोई कमेटी नहीं बनायी गयी है। गरीबी, असमानता और रोजगार को दूर करने के लिए ऐसे में व्यापक योजनाओं को क्रियान्वयन करने की मंसा बना रही सरकार केवल पानी में सिमट जाएगी। सन् 2020 जिस भारत को हम विकसित राष्ट्र की श्रेणी में देखना चाहते हैं वह भी एक संकल्प के सिवा और कुछ न रह जाएगा। राष्ट्रीय जल अकादमी से जरूर कुछ आशाएं बढ़ी हैं जिससे भारत को अकादमिक पैमाने पर ऐसे जल विशेषज्ञ मिलेंगे और भारत अपनी नीतियां लागू कर सकेगा लेकिन आज जो आवश्यकता है उसे भी हमें देखनी है। भारत की जल नीति कैसे अपने वास्तविक जल संरक्षण के लिए काम करके भारत को चुनौतियों से मुकाबला करने में सक्षम बना सके, इसे आज आपूर्ति करनी है। शहरी जल संकट को ध्यान में रखते हुए यह जरूरी है कि हम शहरी जल नीति तैयार करके एक स्वस्थ भारत को जनें, यह आज की मांग है। भारत का जल भविष्य नही ंतो हमसे आज जो प्रश्न पूछ रहा है। वह आने वाली पीढ़ियों के जीवन को न देख सकेगा। क्योंकि जब जीवन ही न शेष होगा तो हम और हमारी पीढ़ियों को पूछने के लिए क्या बचेगा?

 पता: महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, गांधी हिल्स, वर्धा-442001 (महा.)।
ईमेल: hindswaraj2009@gmail.com
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