सिनेमा, बाज़ार एवं अहिंसक सिनेमा का अभाव
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
पूर्व राष्ट्रपति महामहिम श्रीमती प्रतिभा
देवीसिंह पाटील के सम्पादक
उप सम्पादक मध्यभारती रिसर्च जर्नल
सहायक प्रोफ़ेसर/निदेशक
यू. जी. सी.-अकादमिक स्टाफ कॉलेज
डॉ. हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय, सागर-470003 (मध्य प्रदेश)
"We have just
16,000 theatres in India and there are so many filmmakers. How will we cater to
that? Cinema is both business and art. As a business it will survive but as an
art I am not sure."-Shekhar Kapoor, Director (Queen Elizabeth- "Elizabeth" and its
sequel "The Golden Age")
सौ सालों के हिन्दुस्तानी सिनेमा को आप कहाँ खड़ा पाते हैं ओम पुरी: बैठा
हुआ ज्यादा है क्योंकि सबसे ज्यादा कायदे से जब खड़ा हुआ था सिनेमा वह था पचास और
साठ के दशक में.
(हंस के एक साक्षात्कार से अंक: 7, फरवरी, 2013)
सारांश
सिनेमा के सौ वर्ष पूरे हो
चुके हैं और अब भारतीय सिनेमा पूरे विश्व में अपने होने का एहसास सांस्कृतिक,
सामाजिक, राजनीतिक एवं आर्थिक चेतना प्रदाता के रूप में चिन्हित किया जाने लगा है.
इसमें कोई दो मत नहीं कि पिछले सौ वर्षों में भारत ऑस्कर जैसे प्रतिष्ठित पुरस्कार
को भी प्राप्त कर दुनिया में जाना पहचाना जा रहा है. जो भी हो अब भारत की आर्थिक नगरी मुंबई सिनेमा के जरिये दुनिया
को तब तक आकर्षित करती रहेगी जब तक सिनेमा का अस्तित्वा रहेगा. लेकिन भूमंडलीकरण
और उदारीकरण के बाद सिनेमा के सांस्कृतिक संवेदना से विचलन और मल्टीप्लेक्स की ओर
झुकाव साथ ही हिंसा की सिनेमा में अधिकता सिनेमा के वास्तविक सौन्दर्य को कहीं न
कहीं ठेस पहुंचाया है. सिनेमा से सांस्कृतिक क्रान्ति तो ज़रूर हुई लेकिन बदलते
सिनेमा के सौन्दर्यबोध से एक बड़ा वर्ग खिन्न सा है इसलिए सिनेमा की संस्कृति क्या
बाज़ार और मुनाफ़ा के संस्कृति में कहीं तब्दील होने में तो आमादा नहीं है और क्या
हो सकते हैं मुख्यधारा के दर्शक के भविष्य इस प्रपत्र में इन्हीं पहलुओं पर विचार
किया गया है
प्रस्तावना
सिनेमा सौ साल का हो चुका है. सिनेमा के बारे में रैल्फ फॉक्स का कथन था-इस
विधा का कोई भविष्य नहीं है. हम जानते हैं कि रैल्फ फॉक्स की बातें अब ख़ारिज
हो चुकी हैं और सिनेमा अपने इन्द्रधनुषी छटा के साथ आज क्षितिज में अपनी चमक और उपस्थिति से अपनी आवश्यकता और
उपयोगिता को अब स्पष्ट कर चुका है. मूक और सवाक फिल्मों से लेकर अब तक के सिनेमा-सफ़र
से पूरी दुनिया सुपरिचित हो चुकी है और सिनेमा के महत्त्व को जान भी चुकी है. हमें
यह जानकार प्रसन्नता होती है कि भारत एकमात्र ऐसा
देश है, जहां सिनेमा अपनी परम्परा, सौंदर्यबोध और मानसिकता के प्रति निष्ठावान है।
सिनेमा के शुरू के दिन
भारतीय फिल्म उद्योग ने
1913 में दादा साहेब फाल्के की पहली फिल्मराजा हरीशचंद्र के साथ पहले
कदम की शुरूआत किया था और इसके बाद हीरालाल सेन की द फ्लॉवर ऑफ पर्सिया, अरदेशिर
ईरानी की आलम आरा के साथ-साथ एच.एम. रेड्डी द्वारा निर्देशित फिल्म भक्त
प्रह्लाद और कालीदास जैसी फिल्मों के माध्यम से अपना उत्थान किया।
इन फिल्मों ने सिनेमा के जादू को देशभर में फैला दिया और फिल्मों के माध्यम से
पूर्ण मनोरंजन की मांग भी उठने लगी।
वी.शांताराम, बिमल राय, राजकपूर, गुरूदत्त, सत्यजीत
रे, रित्विक घटक, के. आसिफ, के. वी. रेड्डी, एल. वी. प्रसाद, रामू करेत और महबूब खान जैसे फिल्म निर्माताओं ने भारतीय फिल्म उद्योग
को एक शानदार स्वरूप देने में बेहद महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। समय के साथ भारतीय
सिनेमा अंतर्राष्ट्रीय मंच पर पहुंच गया और भारतीय सिनेमा के स्वरूप और भाव ने राजकपूर,
देवानंद, दिलीप कुमार, अशोक कुमार,
शम्मी कपूर, मनोज कुमार और सुनील दत्त जैसे
शानदार अभिनेताओं और गीता दत्त, मधुबाला, वहीदा रहमान, नरगिस, नूतन,
साधना, माला सिन्हा और अन्य अभिनेत्रियों को
चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया।
सिनेमा ने भारत समेत दुनिया में अपनी तरह की क्रान्ति किया है यह अब सर्वमान्य
हो चुका है. आज
भारतीय सिनेमा उद्योग विश्व में फिल्मों का सबसे बड़ा निर्माता है। आज देश में
प्रतिवर्ष दो हजार से भी अधिक फिल्मों का निर्माण हो रहा है। सिनेमा के प्रारंभिक
वर्षों में जहां एक हजार रूपये का साधारण सा राजस्व प्राप्त होता था, वर्ष 2011
में भारतीय सिनेमा उद्योग प्रगति करके सौ अरब रूपये से अधिक का उद्योग बन गया है।
यह उपलब्धि उद्योग द्वारा पिछले सौ वर्षों में अर्जित महत्वपूर्ण प्रगति की
साक्षी है। कुल मिलाकर यह उत्साहजनक है कि भारत का मीडिया और मनोरंजन उद्योग 12
प्रतिशत विकास के साथ साढ़े सात सौ अरब रूपये के स्तर पर पहुंच गया है। केपीएमजी
की नवीनतम अनुसंधान रिपोर्ट में यह भविष्यवाणी की गई है कि उद्योग 15 प्रतिशत की
सीएजीआर अर्जित करके वर्ष 2016 तक 1457 अरब रूपये के स्तर पर पहुंच जाएगा। यह फिल्म जगत के अच्छी खबर हो सकती है.
उदारवाद और मल्टीप्लेक्स के
आगमन के साथ
फिलहाल, सिनेमा जगत में आर्थिक उदारवाद के बाद
मल्टीप्लेक्स का आगमन हुआ तथा बड़े औद्योगिक घराने भी इस ओर अपना हाँथ आजमाने के
लिए आगे बढ़े. या हम इसे यूं कहें कि सिनेमा में बाज़ार देखते निर्माता/निर्देशक
मल्टीप्लेक्स के जरिये हाँथ आजमाने के लिए आमादा हो गए. इसकी वजह लोग यह बताते हैं
कि माधुरी दीक्षित और सलमान खान अभिनीत में सूरज बड़जात्या ने “हम आपके हैं कौन”
बनाया और उससे सौ करोड़ से ज्यादा का मुनाफ़ा आद्योगिक घराने को आकर्षित किया. इस
प्रकार सिनेमा के लिए नहीं बल्कि मुनाफे के लिए बढ़ा एक बड़ा तबका यू. एस. डालर-सिनेमा
में अपने बड़े लाभ का भविष्य देखने लगा.
बाज़ार के नशे बहुत ही कारसाज होते हैं. वह
लुभाता ज़रूर है लेकिन एक ख़ास छोर पर भी ले जाने लगता है. जैसा कि जब सिनेमा का भविष्य
डालर-दर्शक बनाने लगा तो सिनेमा उनके टेस्ट को ध्यान में रखकर निर्माता/निर्देशक
बनाने लगे. इससे अब सिनेमा के व्यापारी आम दर्शक यानी मुख्यधारा के आम दर्शक से
दूर हो गया. बिहार, यू.पी. और मध्य प्रदेश और खासकर हिंदी पट्टी के लोग उनके लिए
अब गौड़ हो गए. कमाई ने निर्माता/निर्देशकों को प्रमाद और अहंकार से लबरेज कर दिया
फलतः हम देखेंगे कि सिनेमा से वह भारतीय संस्कृति के सौन्दर्य भी विलुप्त होने लगे
जिसे भारत के लोग सिनेमा देखते समय खोजा करते हैं. दरअसल, उन्हें लन्दन, मैनहट्टन,
स्विटजरलैंड या किसी ऐसे शहर की अपेक्षा नहीं होती न ही अर्धनग्न या खुले संस्कृति
की पोषक नायिकाओं के टेस्ट चाहिए.
लेकिन पूंजी लगाने और लूटने के लिए सिनेमा के
नए आये ठेकेदार भोंडापन, अश्लीलता, लफ्फाजी, हिंसा, असभ्य सिनेमांकन करना भारतीय
सिनेमा में अपनी कलाधर्मिता बताते नहीं अघाते. यद्यपि यह समस्त सिनेमा के तत्त्व
कभी भी न तो सिनेमा के सौन्दर्यबोध थे और न हो सकते हैं. और अब जब सिनेमा का सौ
वर्ष पूरे हो रहे हैं तो तमाम विमर्शकार भले ही प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से ऐसे
बड़े निर्माताओं/निर्देशकों का समर्थन करें लेकिन मेरी दृष्टि से मूल्यगत व साभ्यातिक
सिनेमा ही टिकाऊ संस्कृति के साथ ज्यादा समय तक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता
है. और यह तभी संभव है जब साहित्य से सिनेमा का सीधा संवाद और तादात्म्य बनेगा.
फिलहाल, इससे चिंतित होना लाज़मी है. लेकिन
सिनेमा जगत की यह आम समस्या है. सिनेमा जगत के रुपहले परदे पर अपनी भाग्य आजमाने
वाले या मुनाफ़ा कमाने वाले लोग कभी-कभी डालर-सिनेमा, यूरो सिनेमा, दीनार सिनेमा या
अन्य दुनिया की करेंसी से जुड़े सिनेमा में अपनी अस्मिता और भविष्य खोजते हैं तो
खोजने दीजिये उनसे कोई शिकायत करने की ज़रुरत नहीं है. लेकिन इससे जो समस्याएं उत्पन्न
हो रही हैं या होने वाली हैं उससे चिंता स्वाभाविक भी है. वस्तुतः उदारवादी पूँजी
और आवारा पूँजी के जरिये सांस्कृतिक क्षरण होता है सिनेमा सांस्कृतिक सन्देश देने
की जगह कुछ और ही टेस्ट देने लगता है और यह सिनेमा के वास्तविक सौन्दर्यबोध के लिए
खतरा है.
ग्लोबल, डायस्पोरिक व ट्रांसनेशनल फिल्मों के
स्वागत के पीछे आर्थिक मुनाफ़ा केवल नहीं
हैं बल्कि यह एक तरह का अप्रवाशी लोगों के जुटाए गए पैसों पर नज़र है. भारतीय
परिक्षेत्र में तथाकथित निपट गवांर लोगों से सिनेमा निर्माताओं का मोह भंग होने के
बाद अब यह भी देखा जा रहा है कि उनका मोह उस दीर्घवर्ती मुनाफ़ा देने वाली दुनिया
से भी भंग होने लगा है क्योंकि शायद मन माफिक भविष्य और लाभ इसमें नहीं मिलने के
आसार उन्हें साफ़ नज़र आने लगे हैं. इस प्रकार सिनेमा का यह द्वंद्व सिनेमा से जुड़े
लोगों के लिए खुद मृग-मरीचिका की तरह महसूस होने लगा है. ऐसे में, सिनेमा में अब
ज्यादातर शोध और अध्ययन के बाद कार्य नहीं हो रहे हैं यह भी चिंता की बात है.
क्या है फिल्मों का
अर्थशास्त्र
हाल के वर्षों में बनी फिल्मों का यहाँ मैं कुछ
ज़िक्र करना चाहूंगा. आपको याद होगा अवतार एक फिल्म अभी आई थी जिसे सताईस
भाषाओं में प्रदर्शित किया गया था. यह फिल्म सात बिलियन यूएस डालर वैश्विक लेबल
पर कमाई की. इसमें सबसे मजेदार बात यह है कि यह फिल्म सताईस भाषाओं में ज़रूर रिलीज़
हुई लेकिन इसमें से एक तिहाई भाषा केवल अमेरिकन भाषा थी. भारतीय भाषाओं में बनने
वाली फ़िल्में और अन्य देशों की भाषाओं में बनने वाली (डब) फिल्मों के अर्थशास्त्र
को इससे जोड़कर देखा जा सकता है. इसके साथ थ्री इडियट, रा-वन और कुछ अन्य
फिल्मों का नाम यहाँ मैं लेना चाहूंगा पान सिंह तोमर, द डर्टी पिक्चर, कहानी,
विक्की डोनर, आई एम् कलाम, स्टैनली का ढाबा, तारे ज़मी पर, रावड़ी राठौर ये सब फ़िल्में
आईं लेकिन सबके मार्केट वैल्यूज काफी अलग-अलग आपको मिलेंगे. यह होता है सिनेमा और
सिनेमा अर्थशास्त्र. भूमंडलीकरण के बाद सिनेमा का अर्थशास्त्र अब बदल गया है और
सिनेमा के भाषाई, सांस्कृतिक एवं जनवादी चेतना पूरी तरह से अर्थ-केन्द्रित हो गयी
है सामाजिक सरोकार भी अब द्रव्य से सिनेमा में तय किये जा रहे हैं इससे सिनेमा की
संवेदना स्वयं में प्रश्नांकित होने लगी है.
मूल संवेदना से भटका सिनेमा जगत
समय के मुताबिक़ सिनेमा ने अपना स्वरुप ज़रूर बदला
लेकिन उसमें अब भी अहिंसक सिनेमा निर्माण की कृपणता मौजूद है, इससे कोई इनकार नहीं
कर सकता. आप पूरे सिनेमा के सौ वर्ष पर नज़र दौडाएं तो यह लगता है कि सिनेमा ने
सांस्कृतिक सद्भाव, सामाजिक प्रेम और सांस्कृतिक चेतना के लिए बहुत से फिल्मों का
निर्माण किया लेकिन उसमें बहुतायत सिनेमा केवल हिंसा, अपराध, अराजकता, पर्याप्त
मारधाड़ से पटा पड़ा मिलेगा. अहिंसक सिनेमा का
जहाँ तक सवाल है तो इसे प्रायः बुद्ध या गांधी से जोड़कर देखा जाता है. हिंदुस्तान में सिनेमा का
जन्म 1913
में हुआ और दक्षिण अफ्रीका से महात्मा गाँधी 1914 में भारत आए यह हम सभी जानते हैं. उनका प्रभाव प्रायः सभी क्षेत्रों और
विधाओं पर पड़ा, यह भी सच है. शायद इसी कारण पहले चार दशक तक खलनायक बर्बर व क्रूर
नहीं थे और उनके चरित्र भी गोलमोल थे. उस दौर में प्रेम या अच्छाई का विरोध करने
वाले सामाजिक कुप्रथाओं और अंध विश्वास से ग्रसित लोग ज़रूर थे. ‘अछूत कन्या’, ‘सद्गति’, ‘सुजाता’, ‘नज़मा’ ‘दुनिया ना माने’, ‘मिल’, ‘महात्मा’ (जो
अंग्रेजों ने बाद में ‘धर्मात्मा’ में तब्दील कर दी) और ‘अमृत मंथन’ इन
फिल्मों को गांधी या गांधीवाद से जोड़कर देखा जाता है सिनेमा में अस्पृश्यता, शराबबंदी
और अन्य सामाजिक सरोकार को प्रमुखता मिली लेकिन इसके बरक्स हम अगर खलनायक या एंटी नायक छवि वाली फ़िल्में जैसे शशिधर मुखर्जी
की 1943 में प्रदर्शित ‘क़िस्मत’
में अपराधी का पात्र ही नायक रहा क्योंकि अशोक कुमार उसके लीद रोल
में थे. इस विधा का भरपूर विकास 30 वर्ष बाद अमिताभ बच्चन द्वारा
अभिनीत फ़िल्मों में ज्यादा मिलता है. आप टीनू आनंद की ‘शहंशाह’
देखें. इसके बाद शाहरुख खान अभिनीत ‘बाजीगर’,
‘डर’ और ‘डॉन’
में अपराधी ही नायक है. ये सिनेमा के साथ विडम्बना ही है कि सिनेमा
एंटी नायक से ज्यादा चर्चित हुआ और वह अपने दर्शकों के दिल में जगह बना लिया.
सआदत हसन मंटो द्वारा लिखी
गई ‘किसान हत्या’, मेहबूब खान की ‘औरत’, ‘मदर इंडिया’, दोस्तोविस्की के उपन्यास ‘क्राइम एंड
पनिशमेंट’ से प्रेरित रमेश सहगल की ‘फिर सुबह होगी’, राजकपूर
की ‘आवारा’, रमेश सिप्पी की ‘शोले’ राजकपूर की ‘श्री 420’ और
‘गुरू’ जैसी फिल्मों पर आप नज़र
डालें इसमें ऐसे चरित्र मिलेंगे जो सिनेमा के इतिहास में किसी ख़ास मकशद को पूरा
करने वाले करेक्टर हैं लेकिन यह किसी भी दशा में अहिंसक सिनेमा की अभिव्यक्ति नहीं
हैं. गांधी को केंद्र में रखकर बनी फ़िल्में भी जिसमें ‘नाइन आवर्स टू राम’, ‘द मेकिंग
ऑफ महात्मा’, ‘गांधी बनाम गांधी’, ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’, ‘लगे रहो मुन्ना
भाई’ और ‘गांधी इज माई फ़ादर’, इन फिल्मों को आप देखिये तो इस प्रकार आपके कई भ्रम दूर हो जायेंगे कि अहिंसक
सिनेमा कितने स्तर पर समाज का हिस्सा बन सका और किस स्तर पर यह मैसेज लोगों को दे
सका. गांधीगिरी को भी अगर पेश किया गया तो वह कहीं न कहीं मज़ाक बन गया लेकिन फिर
भी लगे रहो मुना भाई जैसी फ़िल्में लोगों में एक नए जोश को पैदा करने में
कामयाब रहीं.
सब मिलाकर अब तो फ़िल्में कसाब और अफ़ज़ल
गुरु को केंद्र में रखकर बनेगी. आपको याद होगा कि शहर श्रीप्रकाश शुक्ला पर
बनी थी और ऐसे बहुत से करेक्टर हैं जो सिनेमा में अपनी जगह देर-सबेर बनायेंगे
लेकिन हम समाज को क्या परोसना चाहते हैं यह मायने रखता है. इसके पीछे हमें दो कारण
दिखाई देते हैं. एक, या तो सिनेमा के पास कोई मैसिव-कहानी नहीं है या दूसरा,
सिनेमा को अब इसमें अपनी मार्केट दिख रही है.
चाहे जो भी हो सिनेमा अब जिस जोर आजमाईस
में है उसमें उसका केवल सांस्कृतिक पतन है क्योंकि सामाजिक मूल्यों और नैतिक समाज
निर्माण वाले सिनेमा की जगह यदि ............शीला की जवानी और मुन्नी
बदनाम हुई या जिलेबी बाई ......आदि आयटम सांग और खलनायकों को
केंद्र में रखकर सिनेमा लेगा तो उससे हम किसी अच्छे भविष्य की कल्पना नहीं कर
सकते. इससे निजात पाने के लिए केवल गांधीवाद की ओर लौटने की बात मैं नहीं करता
लेकिन पर्यावरण, भूख और सामाजिक समरसता के लिए रचा-बुना और फिल्माया सिनेमा ही
समाज के मुख्यधारा का सिनेमा है, इसे स्वीकार एक दिन स्वीकार करना पड़ेगा.
और अंत में,
सिनेमा अपने उत्स की ओर है और उसके
उत्कर्ष की कथा केवल साहित्य दे सकता है. सिनेमा के पितृसतात्मक सोच और बाज़ार के
मोह से अलग करने की जिम्मेदारी साहित्य ही दे सकता है. सिनेमा और साहित्य का चोली
दामन का सम्बन्ध रहा है. अच्छे लेखक, अच्छे संगीत, अच्छे सिनेमोटोग्राफ़ी, अच्छी
थीम, वाजिब व जरूरत की संवेदना और सांस्कृतिक उठान के लिए अच्छे प्रयास सिनेमा को
नए आयाम देंगे लेकिन यह तभी संभव है जब सिनेमा और साहित्य समाज साथ चलकर प्रयास
करेंगे वरना ओम पूरी और शेखर कपूर जैसे बड़े अभिनेता, निर्देशक कि निराशा के साथ
अरबों के संख्या में सिनेमा प्रेमी भी निराश होंगे.
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