बौद्ध धर्म में अहिंसा के सोपान
डॉ. कन्हैया त्रिपाठी
अहिंसा की मूल चेतना का स्रोत महाभारत के अलावा बौद्ध दर्शन में भी विद्यमान है। बौद्ध धर्म में अहिंसा की एक लम्बी परम्परा विकसित हुई। बौद्ध धर्म में भी करुणा (स्वयं बुद्ध को करुणावतार कहा गया है) केंद्र में है जिसका स्वाभाव ही अहिंसा है। जैसा कि कहा जाता है कि बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के बाद बिंबिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित, अनाथपिंडक, आम्रपाली जैसे शिष्य मिले और उसके बाद सम्राट अशोक, सम्राट कनिष्क और कई बौद्ध भिक्षु हुए जिनकी वजह से बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ लेकिन यदि समग्रता में देखा जाए तो बौद्ध धर्म के विस्तार में जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व दिखता है वह है अहिंसा।
बौद्ध धर्म में अहिंसा पर आग्रह इसीलिए किया जाता है क्योंकि हिंसा को सम्यक् माना ही नहीं जा सकता। वस्तुतः ‘हिंसा’ तो अविद्या या हम कहें-‘तृष्णा’ से पैदा होती है जिसके कारण हम वास्तविक स्वरूप के ज्ञान से भटक जाते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि अष्टांगिक-मार्ग व प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध-दर्शन के मूल सिद्धांत हैं,जो सार्वभौम सिद्धांत हैं। दूसरी बात, बौद्ध धर्म में सक्रिय अहिंसक सभ्यता पर बल है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन का महाकरुणा का सिद्धांत-अहिंसाभाव का उत्कृष्ट उदाहरण है। महाभारत की ओर मुड़कर देखें तो वहाँ भी शील की काफी विवेचना है। बौद्ध धर्म में भी शील, समाधि और प्रज्ञा, बौद्धों की तीन शिक्षाओं में शामिल है। शील की गहन मीमांसा बाद में की जायेगी किन्तु बौद्ध धर्म में शील के जरिये अहिंसक आचरण को पुनर्जीवित किया है स्वयं बुद्ध ने और उनके अनुयायियों द्वारा भी। थेरवादी परंपरा में शील के साथ यदि महायान परंपरा का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि तथागत ने धर्म को अहिंसा कहा है।
धर्मं समासतोऽहिंसा वर्णयंति तथागताः।
चतुःशतक(12।23)
इसके साथ ही, मांसाहार, बौद्ध धर्म में अहिंसा के साधन की दृष्टि से एक विचारणीय प्रश्न माना गया। अहिंसा में मूल भाव यही रहता है कि किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचे फिर मांसाहार का निषेध कैसे न हो? 20वीं शताब्दी में लगभग प्रत्येक बौद्ध देशों को किसी-न-किसी प्रकार की भयंकर हिंसा से गुजरना पड़ा और उस हिंसा का अहिंसक प्रतिरोध करने वालों में तिब्बत के दलाई लामा का नाम उल्लेखनीय है। इसकेआलावा विएतनाम के थिक न्हाट हान्ह के साथ कंबोडिया के महाघोषानंद का नाम भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। महाघोषानंद हों या दलाई लामा या थिक न्हाट हान्ह, सभी ने बौद्ध दर्शन की मूल चेतना को जीने का यत्न किया। महाघोषानंद की एक कविता बरबस याद आती है जिसमें वह लिखते हैं-
कंबोडिया की वेदना गहरी है
गहरी वेदना से उपजती है गहरी करुणा
गहरी करुणा से उपजता है शांत मन
शांत मन से उपजता है शांत व्यक्ति
शांत व्यक्ति से उपजता है एक शांत परिवार और समुदाय
शांत समुदायों से उपजता है शांत राष्ट्र
शांत राष्ट्र से उपजता है एक शांत संसार
कंबोडिया में शांति-स्थापना के लिए 1992 में महाघोषानंद ने धर्मयात्रा का प्रवर्तन किया था। यदि कविता की व्याख्या में जाएं तो इन बौद्ध भिच्छुओं और बौद्ध अन्तश्चेतानाओं से एक बात साफ़ झलकती है कि उनकी शिक्षाओं तथा अहिंसात्मक उपायों को लागू करने बल दिया जाय तो एक सकारात्मक समाज स्थापित हो जायेगा। वैरभाव द्वेष का द्योतक है।
मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु।
(तत्त्वार्थ सूत्र (7।6)
तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है- प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, गुणियों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा और दोषियों के प्रति भी प्रेमभाव रखना संयम में सहायक है। इसी प्रकार, अगर हम बौद्ध धर्म की ओर देखें तो महात्मा बुद्ध ने हिंसा- कारण तथा परिणाम, दोनों के रूप में वैर या शत्रुता की पहचान करते हुए कहा है- वैर करने से वैर की शांति नहीं होती, अपितु वैर बढ़ता है। इससे हिंसा का कार्य जारी रहता है। वैर को त्याग देने से वैर की शांति हो जाती है। यही सनातन (शाश्वत) धर्म है (धम्मपद)। बौद्ध धर्म हमें सबसे प्रेम करने का आग्रह मिलता है। इसमें बताया गया है कि शत्रुता हमेशा कष्टदायी होती है। मानव को सभी प्राणियों से प्रेम करना चाहिए। हिंसा से तो सम्पूर्ण मानवता खतरे में होती, या पड़ जाती है, उससे भी दो कदम आगे आकर बौद्ध धर्म में शत्रुताभाव को ही शत्रु कहा गया है। वस्तुतः शत्रुताभाव पैदा होने पर ही हिंसा का जन्म होता है। धम्मपद में शत्रुता को ही, वैर को ही मनुष्य का वैरी बताया गया है और उसी मूल्यगत व्याख्या में बौद्ध धर्म का वह भाव छिपा हुआ है जो अहिंसा परमो धर्म: की संरचना सदृश है।
जीतो अक्रोध से क्रोध
साधुता से असाधु को
कंजूसी दान से जीतो
सत्य से झूठ बात को
वैर से न कदापि भी
वैर मिटते हैं कभी
मैत्री से ही मिटे वैर
यही धर्म सनातन।
बौद्ध धर्म की यह शिक्षा वास्तव में उस संकल्प का आह्वान है जिससे अहिंसक सभ्यता का सूत्रपात होता है। निःसंदेह बुद्ध से प्रभावित सम्राट अशोक ने बलिप्रथा और भोजन के लिए पशुओं की हत्या पर रोक लगाई। उसने उपचार व्यवस्था के इंतजाम किए, बरगद तथा आम के पेड़ लगवाए, कुएँ खुदवाए और आनंदगृह के जरिये मनुष्यों और जीव-जंतुओं के लिए कल्याण के काम भी किए। ये बौद्ध धर्म का ही प्रभाव था कि अशोक ने केवल खुद ही नहीं अपितु अपने बेटे और बेटी को भी बौद्ध शिक्षाओं के प्रसार का जिम्मा सौंपा।
धम्मपद में हिंसा के औचित्य पर प्रश्न खड़ा किया गया है। बुद्ध का मानना था कि सभी प्राणी दंड से डरते हैं और सबको जीवन प्रिय है इसलिए सबको अपने समान समझकर न किसी की हिंसा करें और न किसी को हिंसा करने के लिए प्रेरित करें।
सब्बे तसंति दंडस्स सब्बेसं जीवितं पियं
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये
धम्मपद 130
बौद्ध दर्शन की इस खूबसूरती ने तभी तो एशिया में आज भी बौद्ध धर्म को जीवित रखा है। यह बात अलग है कि बौद्ध धर्म का अहिंसक मन्त्र भारत से ही गायब हो गया जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ।
अहिंसा के बदले हिंसा
भारतीय उपमहाद्वीप में ही बंगाल की खाड़ी के ऊपर और भारत के पूर्वोत्तर से जुड़े म्यांमार जो अब बर्मा के नाम से जाना जाता है, में बौद्ध चरमपंथ का उपद्रव और वहां के रोहिंग्या मुसलमानों का कत्लेआम की घटना किसी से छुपी नहीं है। 1995 से मुसलमानों के खिलाफ बाकायदा योजनाबद्ध हमले बढ़े और स्थानीय लोगों को जमीन और जिंदगी से बेदखल किया जाता रहा। इस पर प्रतिक्रिया यह हुई कि अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने कुछ बौद्ध संप्रदायों को भड़काया और उसका बदला वे इस तरह भी ले रहे हो सकते हैं, जैसा कि म्यांमार में दिखता है। बौद्धों के म्यांमार और श्रीलंकाई वर्गों की ये नफरत अस्वाभाविक है। दूसरी ओर श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ जातीय संघर्ष में बौद्धों ने भी भूमिका निभाई। जापान में बहुत से समुराई बौद्ध धर्म के जेन मत को मानते हैं। वे कई तरह से हिंसा को जायज ठहराते रहे हैं, वे एक व्यक्ति की हत्या को भी करुणा की कार्रवाई बताते हैं। इस तरह की दलीलें द्वितीय विश्वयुद्ध में दी गई थीं। इससे पता चलता है कि वे महात्मा बुद्ध के क्षमा के मूल्य की उपासना तो करते हैं लेकिन लगता है उसे धारण नहीं करते हैं। इस पर दलाई लामा की चुप्पी पर प्रश्नचिन्ह खड़े हुए। उस ईलाके के मुस्लिम या श्रीलंका के तमिल भी इन्सान हैं। ऐसे में कहें कि विपरीत परिस्थिति में दलाई लामा जैसे गुरुओं के मुखर न होने के क्या मायने रहे होंगे, यह एक बड़ा सवाल उठता है। कम से कम बुद्ध यह अपने आने वाले अनुयायियों से अपेक्षा नहीं किए होंगे। भले ही म्यांमार के चरमपंथी गुटों और बौद्ध-मठों की राजनीति और कड़े बौद्ध संस्कारों में ढले होने का दावा करने वाली सैन्य हुकूमत में दलाई लामा की उतनी मान्यता नहीं है, यह भी सही है कि दलाई लामा जिस बौद्ध संप्रदाय के प्रमुख हैं, म्यांमार के बौद्ध उस संप्रदाय के नहीं थे। तथापि, दुनिया के एक बहुत सम्मानित और लोकप्रिय धार्मिक गुरु से ये अपेक्षा तो होती ही है कि खामोशी की राजनीति के साथ-साथ वो दबाव भी बनाकर कुछ नई पहल करते लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
हम सभी जानते हैं कि ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा भारत के बोधगया से बोधिवृक्ष की डाल के साथ सबसे पहले श्रीलंका पहुँची। बौद्ध धर्म की जड़ें फिर आसपास फैलती चली गईं। म्यांमार में बौद्ध धर्म लगभग उतना ही प्राचीन है जितना दूसरे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में। किन्तु ऐसे हादसे शर्मनाक साबित हुए। भारत में ही रह रहे दलाई लामा ने दुर्भाग्य से वो नहीं किया जो वे कर सकते थे।
कुछ बात अब बाबासाहब भीमराव अंबेडकर पर की जाय जिन्होंने कहा था कि मैं हिंदू जन्मा अवश्य हूँ, इसमें मेरा कोई नियंत्रण नहीं था,किंतु मैं हिंदू रहकर मरूंगा नहीं। उनके कहे इस वाक्य का असर दलितों पर आज भी कायम है। ऐसा कहा जाता है कि अकेले महाराष्ट्र में लगभग 60 लाख बौद्ध हैं,जो अंबेडकर से प्रभावित हैं। लेकिन इन बौद्धों के भविष्य आज तमाम मुश्किलों के बीच जूझ रहे हैं। नव-बौद्ध और बौद्धों के अंतर्द्वंद्व कुछ और हैं। अहिंसा का सबसे बड़ा सूत्रपात करने वाला धर्म हिंसा के चक्रवात में भारत, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, तिब्बत और एशिया के तमाम क्षेत्रों में आज खुद अहिंसक सभ्यता की जमीन मांग रहा है यह हास्यास्पद है।
तिब्बतियों के धार्मिक नेता दलाई लामा ने स्वयं स्वीकार करते हुए एक बार कहा था, "भारत गुरु है और तिब्बत भरोसेमंद चेला क्योंकि हमने बौद्ध धर्म के विद्वानों को नालंदा की परंपरा के अनुसार शिक्षा दी है।" विश्व को अहिंसा का पहला पाठ पढ़ाने वाले बुद्ध के आज दुनिया भर में 50 करोड़ से ज्यादा अनुयायी हैं। बौद्धों की संख्या में बढ़ोतरी तो ठीक है लेकिन इसके सौन्दर्य पर लगते धब्बे निश्चितरूप से शुभ नहीं है।
बुद्ध के अहिंसा का पुनर्जीवन संभव है
दलाई लामा ने कहा है, बौद्ध धर्म का उद्देश्य मनुष्य सहित सभी सत्वों की सेवा करना और उनका लाभ करना है। और इसलिए यह अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम बौद्ध यह सोचें कि अपने विचारों के साथ मानव समाज को क्या योगदान दे सकते हैं इसके बजाय कि हम अन्य लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करें। बुद्ध ने निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा कर हमें संतोष और सहिष्णुता का एक उदाहरण दिया। अशांत दुनिया किसी के लिए अप्रीतिकर है। इसलिए यदि किसी धर्म के अच्छे विचार अवसर के रूप में दस्तक दें तो हम उस गुणों के साथ जी सकते हैं जो सुखकारी है। बुद्ध के असीम स्नेहपूर्ण सन्देश की संवेदना अभी भी है उसे भारत में कम से कम पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। बौद्धों के भीतर के भी अहिंसक भावनाओं को जागृत करने की जरुरत है जिससे बुद्धिस्ट एस्थेटिक और निखरकर सामने आये।
न मु म्यो हो रेंगे क्यों
13 वीं शताब्दी के भिक्षु पूज्य निचिरेन दाई शोनिन न मु म्यो हो रेंगे क्यों ने ये मन्त्र प्रकट किया। न मु म्यो हो रेंगे क्यों यह मंत्र देने के पीछे उनकी मनसा थी कि लोग इस धर्म के प्रति आदर व्यक्त करें और आचरण भी उसी प्रकार बरतें। ऐसा माना जाता है कि सद्धर्म पुंडरीक सुत्र-न मु मयो हो रेंगे क्यों, के अनुयायी थे जिसे भगवान बुद्ध ने विस्तार से प्रस्तुत किया और इस सूत्र में दुःख से पीड़ित मानवता को मुक्त कराने की शक्ति है। इस मंत्र का अर्थ है, हम बुद्ध के अखंड धर्म को नमन करते हैं। निचिदात्सु फुजीई नामक बौद्ध भिक्षु फुजीई गुरुजी ने भिक्षु पूज्य निचिरेन दाई शोनिन के इस मंत्र को दुनिया के विभिन्न भूभाग में प्रचारित किया था। यह मन्त्र अब शांति स्तूपों में ड्रम के साथ संध्याकाल में बुद्धिष्टों के जीवनचर्या का अंग है। इस मन्त्र में भी अहिंसा के बीज हैं जिसे प्रत्येक तरीके से सकारत्मक स्वरूप में स्वीकारा जा सकता है किन्तु विडम्बना यह है कि ड्रम व अन्य वाद्य के साथ मंत्र लोगों के जीवन-आचरण से दूर है।
महत्वपूर्ण बात यह है की अहिंसा के सोपान बुद्ध दर्शन में भी उपस्थित हैं किन्तु उसकी स्वीकारोक्ति भी आवश्यक है। जैन धर्म में भी इस अहिंसा की अवधारणा कि पड़ताल कुछ और रहस्य खोलेगी।