Wednesday, 14 August 2019

बौद्ध धर्म में अहिंसा के सोपान

 बौद्ध धर्म में अहिंसा के सोपान


डॉ. कन्हैया त्रिपाठी

अहिंसा की मूल चेतना का स्रोत महाभारत के अलावा बौद्ध दर्शन में भी विद्यमान है। बौद्ध धर्म में अहिंसा की एक लम्बी परम्परा विकसित हुई। बौद्ध धर्म में भी करुणा (स्वयं बुद्ध को करुणावतार कहा गया है) केंद्र में है जिसका स्वाभाव ही अहिंसा है। जैसा कि कहा जाता है कि बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के बाद बिंबिसार, अजातशत्रु, प्रसेनजित, अनाथपिंडक, आम्रपाली जैसे शिष्य मिले और उसके बाद सम्राट अशोक, सम्राट कनिष्क और कई बौद्ध भिक्षु हुए जिनकी वजह से बौद्ध धर्म का विस्तार हुआ लेकिन यदि समग्रता में देखा जाए तो बौद्ध धर्म के विस्तार में जो सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व दिखता है वह है अहिंसा।

बौद्ध धर्म में अहिंसा पर आग्रह इसीलिए किया जाता है क्योंकि हिंसा को सम्यक् माना ही नहीं जा सकता। वस्तुतः ‘हिंसा’ तो अविद्या या हम कहें-‘तृष्णा’ से पैदा होती है जिसके कारण हम वास्तविक स्वरूप के ज्ञान से भटक जाते हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि अष्टांगिक-मार्ग  व प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध-दर्शन के मूल सिद्धांत हैं,जो सार्वभौम सिद्धांत हैं। दूसरी बात, बौद्ध धर्म में सक्रिय अहिंसक सभ्यता पर बल है। इस प्रकार बौद्ध दर्शन का महाकरुणा का सिद्धांत-अहिंसाभाव का उत्कृष्ट उदाहरण है। महाभारत की ओर मुड़कर देखें तो वहाँ भी शील की काफी विवेचना है। बौद्ध धर्म में भी शील, समाधि और प्रज्ञा, बौद्धों की तीन शिक्षाओं में शामिल है। शील की गहन मीमांसा बाद में की जायेगी किन्तु बौद्ध धर्म में शील के जरिये अहिंसक आचरण को पुनर्जीवित किया है स्वयं बुद्ध ने और उनके अनुयायियों द्वारा भी। थेरवादी परंपरा में शील के साथ यदि महायान परंपरा का अवलोकन करें तो हम पाते हैं कि तथागत ने धर्म को अहिंसा कहा है।

धर्मं समासतोऽहिंसा वर्णयंति तथागताः।
चतुःशतक(12।23)

इसके साथ ही, मांसाहार, बौद्ध धर्म में अहिंसा के साधन की दृष्टि से एक विचारणीय प्रश्न माना गया। अहिंसा में मूल भाव यही रहता है कि किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुँचे फिर मांसाहार का निषेध कैसे न हो? 20वीं शताब्दी में लगभग प्रत्येक बौद्ध देशों को किसी-न-किसी प्रकार की भयंकर हिंसा से गुजरना पड़ा और उस हिंसा का अहिंसक प्रतिरोध करने वालों में तिब्बत के दलाई लामा का नाम उल्लेखनीय है। इसकेआलावा विएतनाम के थिक न्हाट हान्ह के साथ कंबोडिया के महाघोषानंद का नाम भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। महाघोषानंद हों या दलाई लामा या थिक न्हाट हान्ह, सभी ने बौद्ध दर्शन की मूल चेतना को जीने का यत्न किया।  महाघोषानंद की एक कविता बरबस याद आती है जिसमें वह लिखते हैं-
कंबोडिया की वेदना गहरी है
गहरी वेदना से उपजती है गहरी करुणा
गहरी करुणा से उपजता है शांत मन
शांत मन से उपजता है शांत व्यक्ति
शांत व्यक्ति से उपजता है एक शांत परिवार और समुदाय
शांत समुदायों से उपजता है शांत राष्ट्र
शांत राष्ट्र से उपजता है एक शांत संसार

कंबोडिया में शांति-स्थापना के लिए 1992 में महाघोषानंद ने धर्मयात्रा का प्रवर्तन किया था। यदि कविता की व्याख्या में जाएं तो इन बौद्ध भिच्छुओं और बौद्ध अन्तश्चेतानाओं से एक बात साफ़ झलकती है कि उनकी शिक्षाओं तथा अहिंसात्मक उपायों को लागू करने बल दिया जाय तो एक सकारात्मक समाज स्थापित हो जायेगा। वैरभाव द्वेष का द्योतक है।

मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यानि सत्त्वगुणाधिकक्लिश्यमानाविनयेषु।
(तत्त्वार्थ सूत्र (7।6)
तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है- प्राणिमात्र के प्रति मैत्री, गुणियों के प्रति प्रमोद, दुःखियों के प्रति करुणा और दोषियों के प्रति भी प्रेमभाव रखना संयम में सहायक है।  इसी प्रकार, अगर हम बौद्ध धर्म की ओर देखें तो महात्मा बुद्ध ने हिंसा- कारण तथा परिणाम, दोनों के रूप में वैर या शत्रुता की पहचान करते हुए कहा है- वैर करने से वैर की शांति नहीं होती, अपितु वैर बढ़ता है। इससे हिंसा का कार्य जारी रहता है। वैर को त्याग देने से वैर की शांति हो जाती है। यही सनातन (शाश्वत) धर्म है (धम्मपद)। बौद्ध धर्म हमें सबसे प्रेम करने का आग्रह मिलता है। इसमें बताया गया है कि शत्रुता हमेशा कष्टदायी होती है। मानव को सभी प्राणियों से प्रेम करना चाहिए। हिंसा से तो सम्पूर्ण मानवता खतरे में होती, या  पड़ जाती है, उससे भी दो कदम आगे आकर बौद्ध धर्म में शत्रुताभाव को ही शत्रु कहा गया है। वस्तुतः शत्रुताभाव पैदा होने पर ही हिंसा का जन्म होता है। धम्मपद में शत्रुता को ही, वैर को ही मनुष्य का वैरी बताया गया है और उसी मूल्यगत व्याख्या में बौद्ध धर्म का वह भाव छिपा हुआ है जो अहिंसा परमो धर्म: की संरचना सदृश है।

जीतो अक्रोध से क्रोध 
साधुता से असाधु को 
कंजूसी दान से जीतो 
सत्य से झूठ बात को 
वैर से न कदापि भी 
वैर मिटते हैं कभी 
मैत्री से ही मिटे वैर 
यही धर्म सनातन।

बौद्ध धर्म की यह शिक्षा वास्तव में उस संकल्प का आह्वान है जिससे अहिंसक सभ्यता का सूत्रपात होता है।  निःसंदेह बुद्ध से प्रभावित सम्राट अशोक ने बलिप्रथा और भोजन के लिए पशुओं की हत्या पर रोक लगाई। उसने उपचार व्यवस्था के इंतजाम किए, बरगद तथा आम के पेड़ लगवाए, कुएँ खुदवाए और आनंदगृह के जरिये मनुष्यों और जीव-जंतुओं के लिए कल्याण के काम भी किए।  ये बौद्ध धर्म का ही प्रभाव था कि अशोक ने केवल खुद ही नहीं अपितु अपने बेटे और बेटी को भी बौद्ध शिक्षाओं के प्रसार का जिम्मा सौंपा।
धम्मपद में हिंसा के औचित्य पर प्रश्न खड़ा किया गया है। बुद्ध का मानना था कि सभी प्राणी दंड से डरते हैं और सबको जीवन प्रिय है इसलिए सबको अपने समान समझकर न किसी की हिंसा करें और न किसी को हिंसा करने के लिए प्रेरित करें।
सब्बे तसंति दंडस्स सब्बेसं जीवितं पियं
अत्तानं उपमं कत्वा न हनेय्य न घातये
धम्मपद 130

बौद्ध दर्शन की इस खूबसूरती ने तभी तो एशिया में आज भी बौद्ध धर्म को जीवित रखा है। यह बात अलग है कि बौद्ध धर्म का अहिंसक मन्त्र भारत से ही गायब हो गया जहाँ बुद्ध का जन्म हुआ।

अहिंसा के बदले हिंसा 
भारतीय उपमहाद्वीप में ही बंगाल की खाड़ी के ऊपर और भारत के पूर्वोत्तर से जुड़े म्यांमार  जो अब बर्मा के नाम से जाना जाता है, में बौद्ध चरमपंथ का उपद्रव और वहां के रोहिंग्या मुसलमानों का कत्लेआम की घटना किसी से छुपी नहीं है। 1995 से मुसलमानों के खिलाफ बाकायदा योजनाबद्ध हमले बढ़े और स्थानीय लोगों को जमीन और जिंदगी से बेदखल किया जाता रहा। इस पर प्रतिक्रिया यह हुई कि अफगानिस्तान में बामियान की ऐतिहासिक बुद्ध प्रतिमाओं पर तालिबानी हमलों ने कुछ बौद्ध संप्रदायों को भड़काया और उसका बदला वे इस तरह भी ले रहे हो सकते हैं, जैसा कि म्यांमार में दिखता है। बौद्धों के म्यांमार और श्रीलंकाई वर्गों की ये नफरत अस्वाभाविक है।  दूसरी ओर श्रीलंका में तमिलों के खिलाफ जातीय संघर्ष में बौद्धों ने भी भूमिका निभाई। जापान में बहुत से समुराई बौद्ध धर्म के जेन मत को मानते हैं। वे कई तरह से हिंसा को जायज ठहराते रहे हैं, वे एक व्यक्ति की हत्या को भी करुणा की कार्रवाई बताते हैं। इस तरह की दलीलें द्वितीय विश्वयुद्ध में दी गई थीं। इससे पता चलता है कि वे महात्मा बुद्ध के क्षमा के मूल्य की उपासना तो करते हैं लेकिन लगता है उसे धारण नहीं करते हैं। इस पर दलाई लामा की चुप्पी पर प्रश्नचिन्ह खड़े हुए। उस ईलाके के मुस्लिम या श्रीलंका के तमिल भी इन्सान हैं। ऐसे में कहें कि विपरीत परिस्थिति में दलाई लामा जैसे गुरुओं के मुखर न होने के क्या मायने रहे होंगे, यह एक बड़ा सवाल उठता है। कम से कम बुद्ध यह अपने आने वाले अनुयायियों से अपेक्षा नहीं किए होंगे। भले ही म्यांमार के चरमपंथी गुटों और बौद्ध-मठों की राजनीति और कड़े बौद्ध संस्कारों में ढले होने का दावा करने वाली सैन्य हुकूमत में दलाई लामा की उतनी मान्यता नहीं है, यह भी सही है कि दलाई लामा जिस बौद्ध संप्रदाय के प्रमुख हैं, म्यांमार के बौद्ध उस संप्रदाय के नहीं थे। तथापि, दुनिया के एक बहुत सम्मानित और लोकप्रिय धार्मिक गुरु से ये अपेक्षा तो होती ही है कि खामोशी की राजनीति के साथ-साथ वो दबाव भी बनाकर कुछ नई पहल करते लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

हम सभी जानते हैं कि ईसा पूर्व तीसरी सदी में सम्राट अशोक की बेटी संघमित्रा भारत के बोधगया से बोधिवृक्ष की डाल के साथ सबसे पहले श्रीलंका पहुँची। बौद्ध धर्म की जड़ें फिर आसपास फैलती चली गईं। म्यांमार में बौद्ध धर्म लगभग उतना ही प्राचीन है जितना दूसरे दक्षिण पूर्व एशियाई देशों में। किन्तु ऐसे हादसे शर्मनाक साबित हुए। भारत में ही रह रहे दलाई लामा ने दुर्भाग्य से वो नहीं किया जो वे कर सकते थे।

कुछ बात अब बाबासाहब भीमराव अंबेडकर पर की जाय जिन्होंने कहा था कि मैं हिंदू जन्मा अवश्य हूँ, इसमें मेरा कोई नियंत्रण नहीं था,किंतु मैं हिंदू रहकर मरूंगा नहीं। उनके कहे इस वाक्य का असर दलितों पर आज भी कायम है। ऐसा कहा जाता है कि अकेले महाराष्ट्र में लगभग 60 लाख बौद्ध हैं,जो अंबेडकर से प्रभावित हैं। लेकिन इन बौद्धों के भविष्य आज तमाम मुश्किलों के बीच जूझ रहे हैं। नव-बौद्ध और बौद्धों के अंतर्द्वंद्व कुछ और हैं। अहिंसा का सबसे बड़ा सूत्रपात करने वाला धर्म हिंसा के चक्रवात में भारत, श्रीलंका, म्यांमार, नेपाल, तिब्बत और एशिया के तमाम क्षेत्रों में आज खुद अहिंसक सभ्यता की जमीन मांग रहा है यह हास्यास्पद है।

तिब्बतियों के धार्मिक नेता दलाई लामा ने स्वयं स्वीकार करते हुए एक बार कहा था, "भारत गुरु है और तिब्बत भरोसेमंद चेला क्योंकि हमने बौद्ध धर्म के विद्वानों को नालंदा की परंपरा के अनुसार शिक्षा दी है।" विश्व को अहिंसा का पहला पाठ पढ़ाने वाले बुद्ध के आज दुनिया भर में 50 करोड़ से ज्यादा अनुयायी हैं। बौद्धों की संख्या में बढ़ोतरी तो ठीक है लेकिन इसके सौन्दर्य पर लगते धब्बे निश्चितरूप से शुभ नहीं है।

बुद्ध के अहिंसा का पुनर्जीवन संभव है
दलाई लामा ने कहा है, बौद्ध धर्म का उद्देश्य मनुष्य सहित सभी सत्वों की सेवा करना और उनका लाभ करना है। और इसलिए यह अधिक महत्त्वपूर्ण है कि हम बौद्ध यह सोचें कि अपने विचारों के साथ मानव समाज को क्या योगदान दे सकते हैं इसके बजाय कि हम अन्य लोगों को बौद्ध धर्म में परिवर्तित करें। बुद्ध ने निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा कर हमें संतोष और सहिष्णुता का एक उदाहरण दिया। अशांत दुनिया किसी के लिए अप्रीतिकर है। इसलिए यदि किसी धर्म के अच्छे विचार अवसर के रूप में दस्तक दें तो हम उस गुणों के साथ जी सकते हैं जो सुखकारी है। बुद्ध के असीम स्नेहपूर्ण सन्देश की संवेदना अभी भी है उसे भारत में कम से कम पुनर्जीवित करने की आवश्यकता है। बौद्धों के भीतर के भी अहिंसक भावनाओं को जागृत करने की जरुरत है जिससे बुद्धिस्ट एस्थेटिक और निखरकर सामने आये।

न मु म्यो हो रेंगे क्यों
13 वीं शताब्दी के भिक्षु पूज्य निचिरेन दाई शोनिन न मु म्यो हो रेंगे क्यों ने ये मन्त्र प्रकट किया। न मु म्यो हो रेंगे क्यों यह मंत्र देने के पीछे उनकी मनसा थी कि लोग इस धर्म के प्रति आदर व्यक्त करें और आचरण भी उसी प्रकार बरतें।  ऐसा माना जाता है कि सद्धर्म पुंडरीक सुत्र-न मु मयो हो रेंगे क्यों, के अनुयायी थे जिसे भगवान बुद्ध ने विस्तार से प्रस्तुत किया और इस सूत्र में दुःख से पीड़ित मानवता को मुक्त कराने की शक्ति है। इस मंत्र का अर्थ है, हम बुद्ध के अखंड धर्म को नमन करते हैं। निचिदात्सु फुजीई नामक बौद्ध भिक्षु फुजीई गुरुजी ने भिक्षु पूज्य निचिरेन दाई शोनिन के इस मंत्र को दुनिया के विभिन्न भूभाग में प्रचारित किया था। यह मन्त्र अब शांति स्तूपों में ड्रम के साथ संध्याकाल में बुद्धिष्टों के जीवनचर्या का अंग है। इस मन्त्र में भी अहिंसा के बीज हैं जिसे प्रत्येक तरीके से सकारत्मक स्वरूप में स्वीकारा जा सकता है किन्तु विडम्बना यह है कि ड्रम व अन्य वाद्य के साथ मंत्र लोगों के जीवन-आचरण से दूर है।

महत्वपूर्ण बात यह है की अहिंसा के सोपान बुद्ध दर्शन में भी उपस्थित हैं किन्तु उसकी स्वीकारोक्ति भी आवश्यक है। जैन धर्म में भी इस अहिंसा की अवधारणा कि पड़ताल कुछ और रहस्य खोलेगी।

Tuesday, 21 May 2019

Multifarious Personality His Excellency António Guterres, Secretary General, United Nations (A Brief Biography)

António Guterres, the ninth Secretary-General of the United Nations, took office on 1st January 2017.
Having witnessed the suffering of the most vulnerable people on earth, in refugee camps and in war zones, the Secretary-General is determined to make human dignity the core of his work, and to serve as a peace broker, a bridge-builder and a promoter of reform and innovation.
Prior to his appointment as Secretary-General, Mr. Guterres served as United Nations High Commissioner for Refugees from June 2005 to December 2015,  heading one of the world’s foremost humanitarian organizations during some of the most serious displacement crises in decades. The conflicts in Syria and Iraq, and the crises in South Sudan, the Central African Republic and Yemen, led to a huge rise in UNHCR’s activities as the number of people displaced by conflict and persecution rose from 38 million in 2005 to over 60 million in 2015.
Before joining UNHCR, Mr. Guterres spent more than 20 years in government and public service. He served as prime minister of Portugal from 1995 to 2002, during which time he was heavily involved in the international effort to resolve the crisis in East Timor.
As president of the European Council in early 2000, he led the adoption of the Lisbon Agenda for growth and jobs, and co-chaired the first European Union-Africa summit. He was a member of the Portuguese Council of State from 1991 to 2002.
Mr. Guterres was elected to the Portuguese Parliament in 1976 where he served as a member for 17 years. During that time, he chaired the Parliamentary Committee for Economy, Finance and Planning, and later the Parliamentary Committee for Territorial Administration, Municipalities and Environment. He was also leader of his party’s parliamentary group.
From 1981 to 1983, Mr. Guterres was a member of the Parliamentary Assembly of the Council of Europe, where he chaired the Committee on Demography, Migration and Refugees.
For many years Mr. Guterres was active in the Socialist International, a worldwide organization of social democratic political parties. He was the group’s vice-president from 1992 to 1999, co-chairing the African Committee and later the Development Committee. He served as President from 1999 until mid-2005. In addition, he founded the Portuguese Refugee Council as well as the Portuguese Consumers Association DECO, and served as president of the Centro de Acção Social Universitário, an association carrying out social development projects in poor neighbourhoods of Lisbon, in the early 1970s.
Mr. Guterres is a member of the Club of Madrid, a leadership alliance of democratic former presidents and prime ministers from around the world.
Mr. Guterres was born in Lisbon in 1949 and graduated from the Instituto Superior Técnico with a degree in engineering. He is fluent in Portuguese, English, French and Spanish. He is married to Catarina de Almeida Vaz Pinto, Deputy Mayor for Culture of Lisbon, and has two children, a stepson and three grandchildren.

अहिंसा की अवधारणा

हिंसा और अहिंसा के तीन सोपान हैं - मानसिक, वाचिक  तथा शारीरिक। ये भेद हिंसा के उदभव स्थान के आधार बताए गए हैं | मन में किसी का अनिष्ट चिंतन- मानसिक हिंसा है और किसी के प्रति अनिष्ट की भावना न रखना इस कोटि की अहिंसा है। वचन से अपशब्द आदि निकालना और उससे किसी को कष्ट हो तो वाचिक हिंसा है, दूसरी ओर सत्य, प्रिय तथा हितकर वचन का प्रयोग वाचिक अहिंसा है। शरीर से किसी प्रकार की क्षति पहुँचाना शारीरिक हिंसा है शरीर पर नियंत्रण रखना अहिंसा है।

  अहिंसा व हिंसा पर तो हमने चर्चा कर ली लेकिन इसकी व्युत्पत्ति कैसे हुई इसे जानना आवश्यक है। क्योंकि वास्तव में सर्वप्रथम इसकी जानकारी आवश्यक है। वस्तुतः अहिंसा एक निषेधात्मक शब्द है जिसमे संस्कृत व्याकरण के अनुसार नञ्-समस का प्रयोग है- न हिंसा = अहिंसा अर्थात् हिंसा का अभाव। भाषा का दर्शन प्रत्येक निषेध में विधि को मान्यता देता है। जैसे 'अज्ञान' में ज्ञान का भाव निहित है, निरामिष में सामिष की मूल संकल्पना है। उसी प्रकार अहिंसा की धारणा में भी मूलतः इसके विध्यात्मक रूप ‘अहिंसा’ की प्रतिरोधी 'हिंसा' की अवधारणा अवस्थित है। अतः इससे सिद्ध होता है कि 'हिंसा' की व्युत्पत्ति भी अप्रासंगिक नहीं है। यह मानव के मूल स्वभाव की उपज है।

  पाणिनी व्याकरण के अनुसार 'हिंसा' में रूधादिग्णीय धातु 'हिसि' (हिंसायाम्) अवस्थित है जिसका रूप हिंसति हिंस्त: हिंसन्ति। इस (रूप) धातु से भाववाचक 'अ' प्रत्यय तथा स्त्रीलिंग बोधक 'टाप्' (आ) प्रत्यय लगने से 'हिंसा' शब्द की व्युत्पत्ति होती है। यह भाव या क्रिया- मारना या पीड़ा देने वाला शब्द होने का बोध कराता है/ इसी से कर्ता के अर्थ में पवुल् (अक्) प्रत्यय लगने से हिंसक तथा 'र' प्रत्यय लगने से 'हिंस्त्र' शब्द बनते हैं। दोनों के नवीन अर्थ हैं- हिंसा करने वाला, पीड़क, हत्या का विचार रखने वाला। क्रूर, निष्ठुर और निर्दय के रूप में इसका परिवर्तित प्रयोग मिलता है क्योंकि हिंसा केवल भौतिक या बाह्य स्तर पर ही नहीं अपितु मानसिक स्तर पर भी उद्भुत होती है और कभी-कभी आतंरिक हिंसा वैचारिक रूप में व्यक्ति को निर्मम या निर्दय बनाती है जिससे मनुष्य तमाम प्रकार का पाप करता है। संस्कृत में 'सिंह' शब्द भी वर्ण-विपर्णय द्वारा उपर्युक्त 'हिसि' (हिंस) धातु से सम्बद्ध माना जाता है, सिंहो वर्णविपर्यात अर्थात् हिंस शब्द ही उल्टा होकर सिंह बन गया। ऐसा मानने का कारण यही दिया गया है कि सिंह हिंसा का प्राणिजगत में सबसे बड़ा प्रतिनिधि है। वह अपने क्रीड़ाक्रम में ही प्राणियों का संहार करके क्रूरता का उदाहरण प्रस्तुत करता है। पंचतंत्र में एक श्लोक आता है जिसमें बड़े-बड़े विद्वानों की अकालमृत्यु का निदर्श है। उसके प्रथम चरण में ही कहा गया है कि व्याकरणाचार्य पाणिनि के प्रिय प्राणों का हरण सिंह ने किया था।

  सिंहो व्याकरणाय कर्तुरहरत् प्राणान् प्रियान् पाणिनै:।

 इस विषय में एक दंत कथा (मिथक) प्रचलित है जिसमें अध्यापक की तल्लीनता का संकेत और सन्देश भी मिलता है। कहते हैं कि पाणिनि वन में स्थित अपने आश्रम में अपने शिष्यों के साथ तन्मय होकर कृत प्रत्ययों की शिक्षा दे रहे थे। इसी बीच एक सिंह निकलकर आया। शिष्यों ने तो परिवेश के प्रति अपनी जागरूकता के कारण, गुरू का ध्यान करते हुए चिल्लाना आरम्भ किया- सिंह:, सिंह ... । वे सभी भाग खड़े हुए। किन्तु आचार्य ने, अपनी आंखे बंद रहने के कारण इसे शिष्यों की सहज जिज्ञासा-वृत्ति मानकर 'सिंह' शब्द की व्युत्पत्ति बताना आरम्भ किया। उधर सिंह ने शिष्यों को भागते और उन्हीं के बीच एक व्यक्ति को निश्चिन्त बैठे देखकर इसे अपना अपमान समझा। आखिर वह वनराज और पशुओं का राजा ठहरा। बस, उसने आक्रमण करके एक बार में ही पाणिनि के प्राण ले लिए। इस सन्दर्भ में भारतीय उपाधि, राजाओं की उपाधि 'सिंह' के रूप में दिए जाने के पीछे भी यही हिंसा प्रवृत्ति है, ऐसा कुछ प्रसंग आता है।

 खैर, जो भी हो, इस हिंसा के निवारण के लिए प्रयास कम नहीं हुए हैं। विचारकों ने अहिंसा की स्थापना के लिए बहुत से श्रेष्ठ विचार दिए हैं और यह सिद्ध करने की कोशिश की है कि अहिंसा संसार का सर्वोत्तम धर्म है।

 अहिंसा परमो धर्मः, जब हम इसकी व्याख्या करते हैं। तब हमारा ध्यान सर्वप्रथम महाभारत के शांतिपर्व की ओर जाता है। क्योंकि विद्वानों का मानना है कि अहिंसा परम धर्म है, इस सन्दर्भ में महाभारत में सबसे प्राचीन वर्णन आया है किन्तु यह ठीक-ठीक सत्य नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि यदि महाभारत में भीष्म भी युधिष्ठर की जिज्ञासा को जिस प्रकार शांत करते हैं, उसका आधार उससे भी प्राच्य कथा में मिलता है तो इसका प्राच्य वर्णन महाभारत में ही है, ऐसा मानना उचित नहीं होगा। खैर, महाभारत में अहिंसा के सन्दर्भ में जो वर्णन आते हैं, उसका अवलोकन करें तो -

 महाभारत के द्विसप्तत्याधिक द्विशततमोऽध्याय: में, यज्ञ में हिंसा की निंदा और अहिंसा की प्रशंसा की गयी है। ज्ञानप्राप्ति के वर्णन क्रम में युधिष्ठर भीष्म का अद्भुत संवाद है। इसमें अहिंसा परम धर्म है, इसकी व्याख्या पढ़ते हुए ये प्रसंग मिलते हैं-

 युधिष्ठर ने पूछा- पितामह! यज्ञ और तप तो बहुत हैं और वे सब एक मात्र भगवद्प्रीति के लिए किए जा सकते हैं परन्तु उसमे यज्ञ का प्रयोजन केवल धर्म हो, स्वर्ग सुख अथवा धन की प्राप्ति हो, उसका संपादन कैसे होता है?
  बहूनां यज्ञतपसामेकार्थानां पितामह ।
  धर्मार्थ न सुखार्थार्थ कथं यज्ञं समाहितः॥

 भीष्म जी इस प्रश्न का उत्तर देतें हैं- पूर्वकाल में उत्छलवृत्ति से जीवन यापन करने वाले एक ब्राह्मण का यज्ञ के सम्बन्ध में जैसा वृत्तान्त है और जैसा नारद जी ने मुझे बताया था, वही प्राच्य इतिहास मैं तुम्हें बताना चाहूंगा। भीष्म ने कहा कि नारद जी इस सम्बन्ध में कहते हैं- राष्ट्र विदर्भ जहाँ धर्म की प्रधानता थी, में एक ब्राह्मण ऋषि रहता था। वह बहुत ही गरीब था। वह कटे हुए खेत, खलिहान से बिखरे हुए अन्न के दानों को चिड़ियों की भांति चुनता था और उसी से जीवन निर्वाह करता था। एक बार ऋषि के मन में यज्ञ करने की सद्इच्छा जागृत हुई। कहते है कि जहाँ वह रहता था, वहां अन्न के नाम पर सांवा, दल बनाने के लिए जंगली उड़द और शाक-भाजी के लिए ब्रह्मीलता और इसके अलावा भी अगर कुछ उपलब्ध था तो वह स्वादहीन खाद्य पदार्थ थे किन्तु ब्राह्मण की तपस्या ने सबको सुस्वादु बना दिया था। उस ब्राह्मण ने वन में तपस्या द्वारा सिद्धि प्राप्त कर समस्त प्राणियों में से किसी को भी स्वर्ग की प्राप्ति कराने वाले यज्ञ का अनुष्ठान किया।

 ब्राह्मण की पत्नी का नाम पुष्कर धारिणी था। आचार-विचार से परमधार्मिक थी। ब्राह्मण ऋषि का नाम सत्य था। यद्यपि वह ब्राह्मणी अपने पति सत्य के हिंसायुक्त यज्ञ की इच्छा प्रकट करने पर उसके अनुकूल नहीं होती थी किन्तु तब भी सत्य उसे आग्रह पूर्वक बुला ही लाता था। ब्राह्मणी शाप से भयभीत थी जिससे वह पति की इच्छा, स्वाभाव को कभी टाल नहीं पाती थी। होता के आदेश से इच्छा न होने पर भी ब्राह्मण पत्नी ने उस यज्ञ का कार्य संपन्न कराया (यहाँ बता दें कि होता का कार्य पर्णाद नाम से प्रसिद्ध एक धर्मज्ञ ऋषि करते थे जो शुक्राचार्य के वंशज थे)।

 उसी वन में एक मृग रहता था। एक दृश्य ऐसा बदलता है, सत्य के जीवन में जब सहवासी हिरन मनुष्य की बोली में सत्य से कहा –हे ब्राह्मण! तुमने यज्ञ के नाम पर यह दुष्कर्म किया है। क्या तुम जानते हो कि किया हुआ यज्ञ मंत्र और अंगहीन हो तो वह यजमान के लिए दुष्कर्म होता है। हिरन ने कहा- ब्राह्मण! तुम मुझे होता को सुपुर्द कर दो और स्वयं निन्दाराहित होकर स्वर्गलोक की और गमन करो इसी में तुम्हारी भलाई है। उसके बाद यज्ञ में सावित्री प्रकट होती है और वह सत्य को मृग की आहुति देने की सलाह देती है किन्तु सत्य ने स्पष्ट कहा- मैं अपने सहवासी मृग का वध नहीं कर सकता।

 नारद जी ने आगे बताया कि ब्राह्मण से सीधा ज़वाब मिलने पर सावित्री अंतर्ध्यान हो गई। सत्य, सावित्री की ओर हाथ जोड़कर खड़ा था। इतने में मृग ने पुनः अपनी आहुति देने की याचना की। सत्य ने मृग को गले से लगा लिया और सप्रेम विनम्रतापूर्वक कहा- तुम यहाँ से चले जाओ। तब उस हिरन ने आठ कदम पीछे प्रस्थान किया और लौट पड़ा और कहा- ब्राह्मण! तुम विधिपूर्वक मेरी हिंसा करो। मैं यज्ञ में वध को प्राप्त होकर उत्तम गति पा लूँगा। हिरन ने सत्य से कहा- मैंने तुम्हें दिव्यदृष्टि प्रदान की है, उससे देखो, आकाश में दिव्य अपसराएँ खड़ी हैं। महात्मा गन्धर्वों के विचित्र विमान भी शोभा पा रहे हैं।

सत्य ने आकाश की ओर देखा। उसने बहुत देर तक रमणीय दृश्य देखा। कुछ समय मृग की तरफ देखा और विचार करने लगा। सहसा 'हिंसा' करने पर ही मुझे स्वर्गवास का सुख मिल सकता है, यह मन ही मन निश्चय किया। वास्तव में, मृग रूप में साक्षात् धर्म थे जो मृग का शरीर धारण करके बहुत वर्षों से वन में निवास करते थे। पशु हिंसा यज्ञ के विधि के प्रतिकूल कर्म है। भगवन धर्म ने सत्य (ब्राह्मण) का उद्धार करें ऐसा विचार किया। ब्राह्मण के मन में आए कुविचार ने उसके समस्त तपस्चर्या को कुछ ही समय में समाप्त (नष्ट) कर दिया। इसलिए यज्ञ के बारे में विचार अच्छे होते हैं युधिष्ठर, किन्तु हिंसा यज्ञ के लिए हितकर नहीं है।

 इस भ्रम में ब्राह्मण ने अपनी समस्त तपस्या को समाप्त हो जाने पर धर्म के समक्ष घुटने टेके और धर्म ने उसका यज्ञ स्वयं कराया। फिर सत्य ने तपस्या करके अपनी पत्नी पुष्करधारिणी के मन जैसी स्थिति थी, उसी तरह का उत्तम समाधान प्राप्त किया। उस समाधान का सार यही था युधिष्ठर, जैसा कि ब्रह्मा जी के पुत्र ने बताया कि उसे ज्ञान हो गया था तथा उसे दृढ़ निश्चय हो गया की हिंसा से बड़ी हानि होती है, अहिंसा परम कल्याण का साधन है।

और भीष्म ने नारद को यह कथा सुनाते हुए यह बताया-
 'अहिंसा सकलो धर्मो हिन्साधर्मरतथाहितः।
 सत्यं तह्मं प्रवक्ष्यामि यो धर्मः सत्यावदिनाम ॥
  (द्रष्टव्य: महाभारत मोक्षधर्म पर्व, पृष्ठ 5131)

 अर्थात् अहिंसा ही सम्पूर्ण धर्म है। हिंसा अधर्म है और अधर्म अहितकर होता है (प्रथम पंक्ति)। महाभारत कृति का अगर हम अवलोकन करें तो शांति पर्व के अंतर्गत तुलाधार-जलालि-संवाद का अध्यन करते हुए भीष्म ने ही एक कथा को सुनते हुए कुछ और भी बातें स्पष्ट करने का प्रयास किया है बहुत ही  सुन्दर ढंग से। यह प्राचीन काल के महातपस्वी ब्राह्मण जलालि और वणिकधर्म, धारण करने वाले महायशस्वी, काशीवासी तुलाधार के बीच संवाद में कथा उभरकर आती है जिसमें तुलाधार ने धर्म के पथ पर जाने वाले मानव और अधर्म पर चलने वाले अधर्मी मानव की पथगमन में अंतर बताने का प्रयास किया है।

 सर्वप्रथम कथा अंश- तुलाधार ने कहा- ब्राह्मण (जलालि)! मैंने धर्म के जिस मार्ग का दर्शन कराया है, उस पर सज्जन पुरुष चलते हैं या दुर्जन? इस बात को अच्छी तरह जांचकर प्रत्यक्ष कर लो। तुम्हें इसकी यथार्थता का भान हो जाएगा।

 देखो ! आकाश में ये जो बहुत से श्येन एवं दूसरी जाति के पक्षी चारों ओर विचरण कर रहे हैं, इनमें तुम्हारे सिर पर उत्पन्न हुए पक्षी भी हैं। तुलाधार ने कहा- ब्राह्मण! ये यत्र-तत्र घोंसलों में घुस रहे हैं। देखो! इन सबके हाथ-पैर सिकुड़कर शरीरों से सट गए हैं। इन सबको बुलाकर पूछो। ये पक्षी तुम्हारे पालित-समादृत हुए हैं। अतः तुम्हारा पिता के समान सम्मान करते हैं। जलालि! इसमें संदेह नहीं है कि तुम इनके पिता ही हो; इन पुत्रों को बुलाकर प्रश्न करो। कहते हैं कि जलालि बहुत ध्यान से सुने और उसके बाद (युधिष्ठर को संबोधित करते हुए भीष्म ने कहा)-

 जलालि ने उन पक्षियों को बुलाया। उनका वचन सुनकर वे पक्षी वहाँ आए और उनसे मनुष्य वाणी में बोलने लगे-
 अहिन्सादिकृतम कर्म इह चैव परत्र च।
 श्रद्धा निहन्ति वैब्राह्मन सा हता हन्तितंनरम्॥

 अर्थात्, अहिंसा और दया आदि भावों से प्रेरित होकर किया हुआ कर्म इहलोक, और परलोक में भी उत्तम फल देने वाला है। ब्राह्मण! यदि मन ने हिंसा की भावना हो तो वह श्रद्धा का नाश कर देती है। फिर नष्ट हुई श्रद्धा करने वाले इस हिंसक मनुष्य का ही सर्वनाश कर डालती है।

 अहिंसा की व्याख्या भीष्म ने जलालि और तुलाधार संवाद के जरिए उन पक्षियों के माध्यम से इतने स्पष्ट ढंग से की है। मूलतः यही आधार है अहिंसा के परमधर्म को जानने के लिए। विचार करें, यदि पक्षी इतने यशस्वी वाक्यों से मानव में अहिंसा की अवधारणा को विकसित होने के लिए स्पष्ट अपने अलौकिक शब्दों से अहिंसा का भाव संचारित कर देना चाहते हैं, जिससे मनुष्य धर्म और धर्म के अहिंसक भावों को आत्मसात करे। धर्म के निकट पहुँच सके। पक्षी साफ शब्दों में कहते हैं कि समस्त योनियों में विचरण करते हुए मोक्ष का मार्ग अहिंसा से प्राप्त किया जा सकता है, क्या आपको ऐसा नहीं लगता? महाभारत में अहिंसा की प्रशंसा करते हुए राजा विच्खुन द्वारा अहिंसा-धर्म की प्रशंसा का जिक्र भीष्म करते हैं। अहिंसा धर्म आत्मसात करने योग्य है अथवा अहिंसा धर्म की महत्वपूर्ण कड़ी है या अहिंसा ही परमधर्म है, कैसे है? भीष्म ने कहा है, प्राचीन काल में राजा विच्खुन ने समस्त प्राणियों पर दया करने के लिए जो उद्धरण प्रस्तुत किया है, इतिहासकार इसकी प्रायः व्याख्या अपने ग्रंथों में करते हैं। महाभारत में विच्खुन राजा का गौओं के प्रति मंगलकामनाएँ और अहिंसा धर्म की, उनके द्वारा अदभुत प्रशंसा का वर्णन है। महाभारत में सत्यवान की कथा के माध्यम से राज्य में अहिंसा का पालन करते हुए हिंसा से बचने की तरकीब भी सुझायी गई है। चिरकारी नामक गौतम ऋषि पुत्र के माध्यम से अहिंसा के एक और स्वरुप की स्थापना का सजीव वर्णन महाभारत में मिलता है।

 इस प्रकार हम निष्कर्ष प्राप्त कर चुके हैं कि वास्तव में महाभारत से अहिंसा और धर्म के संबंधों को स्पष्ट तौर से समझा जा सकता है। यद्यपि इस विमर्श को यहीं विराम देते हैं। चिरकारी और गौतम ऋषि के दृष्टान्त भी बहुत रुचिकर है। 

Wednesday, 23 September 2015

चरखा जो कभी अस्मिता का प्रतीक था!

 चरखा जो कभी अस्मिता का प्रतीक था!
कन्हैया त्रिपाठी

मनुष्य बिरादरी का अन्तिम लक्ष्य क्या है, इसकी अगर पड़ताल की जाए तो यह पता चलता है कि मनुष्य अन्तत: आनन्द की प्राप्ति चाहता है। सुख उसका प्रथम लक्ष्य है। आजादी से पूर्व और अब भूमण्डलीकरण के युग में भी अगर विभिन्न परिस्थितियों से मनुष्य संघर्ष कर रहा है तो उसके संघर्ष का अंतिम उपक्रम उसके सुख पर जाकर सिमट जाता है। यह बात अलग है कि इसमें से कुछ सार्थक जीवन जीते हुए अपने समाज और दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं। जो दुनिया के लिए कुछ कर जाते हैं उनकी दूरदर्शिता उन्हें इस काबिल बनाती है। वस्तुत: वह अपने साधन और साध्य में फर्क करके अपनी योजनाओं को मूर्तरूप देते हैं, इसलिए समाज हित में कुछ रचनात्मक कर गुजरते हैं।
गांधीजी ने सन् 1909 में एक छोटी सी किताब लिखी थी-हिन्द स्वराज। उसमें साधन और साध्य का मूलमंत्र उन्होंने दिया था। उस पुस्तक में गांधीजी ने ऐसी सभ्यता का विरोध किया था जो मनुष्य के 'स्व' का सर्वनाश करती हो। इसके बदले वह एक 'अहिंसक सभ्यता' ईज़ाद करते हैं जिसके माध्यम से मनुष्य छोटे व लघु उद्योग-धन्धों को अपनाकर स्वावलम्बी बन सके।
हम देखेंगे कि उन दिनों सशक्त विकल्प के रूप में 'चरखा' और 'खादी' अपनाने पर गांधीजी ने बल दिया। उनकी खादी के जरिए स्वदेशी सभ्यता की अनुगूंज थी, और उनका मानना था कि यह गरीबों का सहारा है, दुखियों का बन्धु है और अन्धे की लाठी है।
चूँकि गांधीजी यह जानते थे कि भारत की आत्मा गांवों में बसती है इसलिए भी वह चरखें के सहारे गांव को खुशहाल बनाने का स्वप्न देखते थे। उनका मानना था कि बड़े उद्योग किसी भी तरह भारतीय ग्रामीण सभ्यता के लिए लाभप्रद नहीं हैं और इससे ग्रामीणों का पलायन भी सम्भव है। इससे निजात के लिए उन्होंने चरखे की ओर भारतीय मानस का ध्यान खींचा। वास्तव में, जिस भारत के करोड़ों लोगों के दो जून के भोजन की जरूरत हो उसकी भरपायी भले बड़ी मशीने कर दें लेकिन वह कभी उन्हें सम्मान भी उसी एवज में दे पाएंगी, यह असम्भव था।
चालीस और पचास के दशक में चरखा लोगों के जीवन के उत्कर्ष के लिए मील का पत्थर साबित हुआ। चरखे से लोग आत्मानुशासन, धैर्य और स्वावलम्बन तो प्राप्त किए साथ ही भारत के लोग गुलामी से मुक्त हुए।
चरखे के सम्बन्ध में ऐसी मान्यता है कि यह आध्यात्म से जोड़ता है। इससे मनुष्य एकग्र होता है लेकिन इसके साथ यह चीजें भी गहरे चिंतन के बाद समझ में आती हैं कि यह थाली की रोटी को सृजित करता है। थाली की रोटी का मतलब, मनुष्य के छुधा का भंजक भी यह है। मनुष्य के आत्मिक संतुष्टि का विकल्प चरखा इन अर्थों में ईश्वर का साक्षात दर्शन बनकर हमारे सामने प्रकट होता है। इस प्रकार चरखा आध्यात्म है तो जीवनचर्या का संबल भी।
आज नई तकनीकें, प्रौद्योगिकी तथा विज्ञान ने मनुष्य को इस योग्य बना दिया है कि उसकी दुनिया बहुत छोटी हो गयी है। लेकिन यह सम्पूर्ण आबादी का चित्र नहीं है। अभी भी हमारे देश की बहुतायत जनसंख्या गांवों में रहती है, उसके दो जून का निवाला अभी भी चरखा जैसे औजार दे सकते हैं जो कम लागत और कम परिश्रम से सुलभ हों। हमें विस्थापित न करें और हमें अपनों से दूर न करें। इसका विकल्प अब भी चरखा हो सकता है।

यह अच्छी बात है कि चरखा अब नए परिस्कृत रूप में हमारे सामने है। उसके नए संस्करण ने जमाने के हिसाब से सुगम तरीके से कताई की क्षमता प्राप्त कर ली है। इसलिए यह चरखा अब तो और हमारी गरीबी काट रही जनता का हमदर्द साबित हो सकता है। आवश्यकता इस बात की है कि हम इसको कितनी तत्परता के साथ अपनाते हैं। गांधी ने अपनी पुस्तक में ऐसे ही उपक्रम को धारण करने की सीख दी है जिससे हमारी अपनी आत्म की छति न हो। अपने स्व को हम न खत्म कर दें। इसीलिए वह सच्चे साधन की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करते हैं। लेकिन आधुनिक सभ्यता की बलिहारी, की वह अपने से विरक्त होने नहीं देती। वह अपने उन संजाल में फंसा रही है हम मनुष्यों को, जिनसे अगर हम उबर न सके तो हमारी अपनी आजादी छिन जाएगी। सन् 2007 में खादी और ग्रामोद्योग आयोग के स्वर्ण जयन्ती समारोह में भारत की महामहिम राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवीसिंह पाटील ने कहा था खादी हमारे अन्त:करण की भावनाओं का हिस्सा, आत्मसम्मान और आत्मनिर्भरता का प्रतीक है। खादी और ग्रामोद्योग ग्रामीण अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का माध्यम है और इसमें रोजगार की विपुल सम्भावनाएं हैं। इन सम्भावनाओं को कौन तलाश रहा है? हमारे देश के लोग अपनी सम्भावनाएं ग्लैमर में ढूढ रहे हैं। विदेशों में तो लोग खादी पहनते हैं और चरखे की ओर भी उनका सकारात्मक रुझान है लेकिन भारत अपनी मूल चेतना से भटक रहा है, यह चिंतनीय है।
हम चरखे से अलग नहीं हो रहे हैं। बल्कि इसपर से यह समझ में आता है कि हमारी संकीर्णताओं और जरूरतों ने हमारे अपने से अलग कर रखा हैं। सम्बन्धों के साथ आज रोना है और अपने कुटीर उद्योगों के साथ यही रोना है कि ये हमारे विकास में सहयोगी नहीं हैं। यद्यपि यह एक मिथ है। इस मिथ से जब तक हम मुक्त नहीं होते तब तक हम चाहकर भी जुड़ नहीं सकते। यह हमारी कमजोरी है। अपनी आजादी के मुख्य अस्त्र आज विल्कुल हमारे लिए किसी काम के न रहे यह कहना हमारी भूल है। हमारे देश में आठ हजार दूकानों से खादी एवं ग्रामोद्योग आयोग अपने माल तैयार कर रहा है और विपणन भी कर रहा है लेकिन यह हमारे लिए विल्कुल हास्यास्पद है कि भारत की 90 प्रतिशत जनता इससे विरत होना चाहती है। कमीशन के साथ जुड़े लोगों के बारे में भी ऐसी राय है कि यह वे लोग हैं जिनकी इस बहाने कोई अन्य दूकाने चलती हैं। इस प्रकार खादी और चरखे के साथ यह दशा होगी, किसी ने सोचा नहीं था। आज जब हम नए विश्व बाजार का सामना कर रहे हैं तो क्या अब समय आ गया है कि हम एक बार फिर अपने चरखे से रूबरू हों, यह यक्ष प्रश्न है।